
(एक साहित्यिक वेबसाइट पर पूर्व प्रकाशित इस कविता का प्रकाशन आज हम अपने ब्लॉग पर कर रहे है। आप सभी का शुक्रिया जो हमेशा अपनी अमूल्य राय से हमारा मार्गदर्शन करते है और उत्साहवर्धन भी। हमको इस बात का दुःख भी है कि हम आप सभी के ब्लॉग पर आकर अपनी प्रतिक्रिया नही दे पाते......फ़िर भी आप हमें अपना प्यार - आर्शीवाद देते है और सुझाव भी। उम्मीद है कि ये रिश्ता यूँ ही बना रहेगा ....... )

अंजाम से बेखबर बूँद जब आसमां से चलती है
कभी ज़मी उसकी राह तकती है,
तो कभी सीप उसके आने से डरती है,
फ़ना होना तो उसका मुक्कदर है,
फिर भी जिंदगी से प्यार करती है।
गिरी एक पत्ते पे तो शबनम बनी,
शायर की नज़र पड़ी तो ग़ज़ल बनी,
सूरज ने जो रोशनी से जलाना चाहा
बन तारे उसने धरा को सजाना चाहा।
नन्ही सी उम्र में सूरज को चुनौती दे दी,
जाते-जाते जहाँ को निशानी दे दी,
समंदर के पानी में मोती बन वो रहती है,
किसी के आँखों में दरिया बन वो बहती है।
कलियाँ ओस चख चटक जाती है,
तितलियाँ रस पी जवां हो जाती है,
पेड़ नई कोंपले रख नहाने को तैयार है,
बादल फिर धरा को भिगोने को बेताब है।
बूँद पलकों पे आंसू सजा बाबुल से जुदा होगी फिर,
सैया संग, उमंग ले भारी मन से विदा होगी फिर,
"धरा ससुराल" बहार संग स्वागत के लिए तैयार है,
एक नव-वधु का आज फिर दूसरे जहाँ में दीदार है ।