Friday, June 26, 2009

"मन की गिरह"


( डॉ श्याम गुप्ता जी के सुझावों पर अमल करते हुए कविता में कुछ परिवर्तन किया है, उम्मीद है की आप इसे पसंद करेगे)


जी चाहता है मन की गिरह खोल दें ,
जो कुछ अंदर छुपा हैं सब बोल
दें ,
ज़माने के फेर में हम पड़ गए थे ,
उलझी सी दुनिया में उलझ से गए थे।




कोशिश की हवा के साथ बहने की,
झूठी, मक्कार, बेईमान,सफ्फाक बनने की,
इस दिशा में सारी जुगत लगाई,
जो नहीं सीखी थी वो भी तरतीब भिड़ाई।





अफ़सोस! मेरी पहली तरकीब काम आई,
तकदीर हमें बेइज्जत कर वापस सही राह पर लाई,
हम अपनी हार का विश्लेषण कर गए,
और फिर पूरी लगन के साथ नए प्रयास में जुट गए





जब हालात की तासीर को चेहरे की तहरीर बनने दिया,
तभी नैनों ने सच्चाई का दामन पकड़ लिया,
नयना बिन बोले सब कह गए ,
हम तो अपने ही नैनों से छले गए।





फिर भी हार नहीं मानी हमने ...
सोचा अबकी बार गहरी चाल चलेंगे,
राजनीति,कूटनीति, दोहरे मानदंड अपनाएंगे,
इन भ्रष्ट और गंदे लोगो के बीच कुछ तो जगह बनायेंगे।





पर इस बार भी वही हुआ ...
शह देते - देते, ज़माने की चाल से मात खा गए ,
और एक जीर्ण - क्षीण मोहरे का शिकार हो गए



अब तो लगता नहीं कुदरत हमारा साथ देगी ,
भ्रष्ट बनने की हमारी हर कोशिश नाकाम होगी ,




हालात कितने भी दुश्वार क्यों हो,
हमारा हाल कितना भी बदहाल क्यों हो ,
नहीं लगता है कि बुराई से समझौता कर पायेंगे,
संस्कारी है भई हम तो , भ्रष्ट बन पायेगे




कुनितिवान, भ्रष्ट लोगों के मध्य संस्कारों की नींव डालेंगे ,
अपने आत्मबल, स्वावलम्ब और चरित्र को टटोलेंगे,
भरोसा है खुद पर के कीचड में कमल खिला सकते है,
हजार सही कम से कम एक विधोत्मा, गार्गी या ध्रुव तो बना सकते है।




चलिए इन्ही विचारो के साथ आगे बढ़ते है ,
आँगन में पुरखों के संस्कारो का बीज रखते है,
अब तो इन्ही पौध को रोज़ सींचना है ,
नई तकनीको और स्वस्थ मस्तिष्क के साथ रोपना है।




आर्यावर्त की धरा पर एक बार फिर कुंदन बरसेगा ,
जब यहाँ का हर युवा पाश्चात्य देशो में .......
भारतीयता का लोहा मनवाएगा ,
और पश्चिम भारतीय संस्कृति के रंग में रंग जायेगा।





21 comments:

ओम आर्य said...

bahut bahut bahut bahut sundar post.........behatrin

Unknown said...

ab havayen hi karengi raushni ka faisla...
jis diye me tel hog vah diya rah jaayega

aapka hausla hi nahin hunar bhi gazab ka hai
achhi kavita k liye badhai !

richa said...

amazing... too gud... एक बार फिर हम आपकी कलम के कायल हो गए :-)... सच ही है ... इतना भी मुश्किल नहीं है संस्कारों के साथ जीना...

डॉ. मनोज मिश्र said...

सही है ,किसी नकिसी तरह अवश्य ही अपना सफर पूरा कर लेंगें . आरोह -अवरोह के बिना लिखी गयी एक अच्छी रचना .

M Verma said...

संस्कार जब खुद संस्कारहीन होने लगे तो !! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.

Vinay said...

बहुत सुन्दरता से मन के विचार कविता बन गये हैं

---
मिलिए अखरोट खाने वाले डायनासोर से

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छा लिखा है.

सुशील छौक्कर said...

बहुत ही बेहतरीन। दिल की बातों बखूबी कह दिया। हम भी इस दौर से गुजर रहे है देखिए क्या होता।

Vandana Singh said...

bahut bahut bahut badiya ..... sacchi ar sarthak

नवनीत नीरव said...

rachan to bahut hi achchhi hai.Mujhe pasand bhi aayi.Ek gujarish karna chahunga-Kripya sambhav ho no positive baton ko apni kavitaon mein sahamil jaroor karein.
Navnit Nirav

Sajal Ehsaas said...

bahut achhe ideas hai(aur haan novelty bhi hai...) presentation achha hai bas kahin kahin ek repetitive touch aa raha hai,but its ok bcoz of the kind of central theme involved....overall a nice one

प्रकाश गोविंद said...

रचना में भाव बहुत सुन्दर हैं !
दिल को छूती हैं पंक्तियाँ !

किन्तु यह कविता नहीं लगती !


आज की आवाज

दिगम्बर नासवा said...

sanskaaron के saath jeena is duniyaa में sach much mushkil है............... पर आपने haar नहीं maani ये बात ही sabse uttam है........... सुन्दर aashaa vaan kavita है ................ बहूत खूब

शोभना चौरे said...

bhut achi abhivykti.
sab kuch sikha hmne ,
na sikhi hoshiyari
sach hai duniya valo ki
ham hai anadi .

par anadi hi ache

Murari Pareek said...

jabardast

रश्मि प्रभा... said...

waah,waah,waah...........gajab ki rachna hai

!!अक्षय-मन!! said...

dil ki awaaz......
jo in kubsurat shabdon ke roop main dil tak hi pahuinchi..
aur honsla bhi deti hai ...

Prem Farukhabadi said...

rachna achchhi lagi.Love your identity.place your picture.

Murari Pareek said...

वाह जी क्या खूब कहा है , दरअसल भ्रष्ट बनना सबके बस की बात नहीं!! आप मत कोशिश कीजिये जो आप से नहीं हो सकता !! बेहतरीन रचना!!

shyam gupta said...

मज़्बूरी में सन्स्कारों के साथ जी ही लेंगे-सफ़र पूरा करही लेंगे--सन्स्कारों की बेइज़्ज़ती,भ्रष्टता का महिमा मंडन लगता है। समाज़ को गलत सन्देश जाता है।
भाव यह होना चाहिये-हम भ्रष्ट नहीं होंगे ,चाहे कितने ही कष्ट आयें,सन्स्कार नहीं छोडेंगे।---शान से जियेंगे व सफ़र पूरा करेंगे अपनी शर्तों पर।

हां,यह कविता नही स्टेटमेन्ट है।

प्रिया said...

डॉ. गुप्ता, आपके सुझावानुसार परिवर्तन कर दिया है, उम्मीद है अब आप इसे पसंद करेंगे