एक लड़की को देखा मैंने चौराहे पर,
देखती गई -देखती गई,
न जाने क्यों देखती गई...
वह मेरी अपनी नहीं थी,
पर लगा कि पराई नहीं हैं
वह उम्र में मेरे ही बराबर थी ...
जिंदगी की आधुनिकता में ,
मैं उससे आगे थी।
आँखों में झाँका तो ऐसा लगा,
मानों, मौन होकर भी सवाल करती हैं,
पर मैं निरुत्तर थी,
शायद मेरी आँखें भी सवाली थी,
जो बेजवाब होकर खुल-बंद रही थी।
उसमें वो सबकुछ था जो मुझमें हैं,
शायद मुझसे भी ज्यादा, बहुत कुछ
वो भी एक नारी थी, मैं भी एक नारी हूँ
ईश्वर की अनुपम, अद्वितीय संरंचना।
उसकी आँखें बड़ी थी, पर उनमें चमक न थी
वो खाली थी, कुछ भरी भी,
उसकी आँखों में निराशा, तृष्णा के भाव थे...
कटि तक लम्बे बाल, देखा तो ऐसा लगा ......
जैसे कई दिनों से संवारा भी न हो ....
उसके बालों में बेजान, खंडहरनुमा तस्वीर थी,
होठों को कमल की संज्ञा दी जाये,
अतिशयोक्ति न होगी,
पर उनमें चिकनाहट न होकर दरारे थी ,
मानों किसी कारीगर ने ईंट की दीवार खड़ी की हो,
फिर भी मैं कहती हूँ......
वो खूबसूरत थी , बहुत खूबसूरत .............
वो नारीत्व से परिपूर्ण थी,
स्वयं को सजाने में अपूर्ण थी,
वो वस्त्रो में सिमटी थी,
वो भी बेवफा से,
उसका मज़ाक उड़ा रहे थे.....
उसके चेहरे में आकर्षण था,
पलभर का आकर्षण अनुपस्थित था ,
मैं उसे घूर कर देख रही थी,
वो कोने में सिमटती जा रही थी ,
शायद, इन्फेरिओरिटी कोम्प्लेक्स सफर कर रही थी ।
हाय! पुरुष प्रधान समाज ......
तूने उसे भी न छोड़ा.....
उस पर भी छींटाकशी हो रही थी,
और वो बेपरवाह सी, अपने बारे में सोच रही थी
एकाएक मेरी ऑटो चल दी ...
मैं उसी देखती गई, देखती गई, देखती गई................
जबतक वो मेरी आँखों से ओझल न हो गई
और मेरी ऑंखें सवाली हो गई ..
ऑटो में बैठी - बैठी कुछ सोचती चली गई ........
और ऑटो मेरे स्टॉप से आगे निकल गई ......
उसके अस्तित्व ने शरीर और आत्मा को झकझोंर दिया
क्यों ? मैं खुद नहीं जानती
मेरी आँखों में उसका चित्र आज भी हैं ..
चित्रकार तो नहीं , पर लिखती जरूर हूँ .....
अतः कलम उठ गई,
मन के भावो को कागज पर उतार दिया ,
चित्त में शांति अभी भी नहीं हैं
न जाने ये अस्थिरता कब दूर होगी .....
दूर होगी भी या नहीं ...
मैं अनजान हूँ .
देखती गई -देखती गई,
न जाने क्यों देखती गई...
वह मेरी अपनी नहीं थी,
पर लगा कि पराई नहीं हैं
वह उम्र में मेरे ही बराबर थी ...
जिंदगी की आधुनिकता में ,
मैं उससे आगे थी।
आँखों में झाँका तो ऐसा लगा,
मानों, मौन होकर भी सवाल करती हैं,
पर मैं निरुत्तर थी,
शायद मेरी आँखें भी सवाली थी,
जो बेजवाब होकर खुल-बंद रही थी।
उसमें वो सबकुछ था जो मुझमें हैं,
शायद मुझसे भी ज्यादा, बहुत कुछ
वो भी एक नारी थी, मैं भी एक नारी हूँ
ईश्वर की अनुपम, अद्वितीय संरंचना।
उसकी आँखें बड़ी थी, पर उनमें चमक न थी
वो खाली थी, कुछ भरी भी,
उसकी आँखों में निराशा, तृष्णा के भाव थे...
कटि तक लम्बे बाल, देखा तो ऐसा लगा ......
जैसे कई दिनों से संवारा भी न हो ....
उसके बालों में बेजान, खंडहरनुमा तस्वीर थी,
होठों को कमल की संज्ञा दी जाये,
अतिशयोक्ति न होगी,
पर उनमें चिकनाहट न होकर दरारे थी ,
मानों किसी कारीगर ने ईंट की दीवार खड़ी की हो,
फिर भी मैं कहती हूँ......
वो खूबसूरत थी , बहुत खूबसूरत .............
वो नारीत्व से परिपूर्ण थी,
स्वयं को सजाने में अपूर्ण थी,
वो वस्त्रो में सिमटी थी,
वो भी बेवफा से,
उसका मज़ाक उड़ा रहे थे.....
उसके चेहरे में आकर्षण था,
पलभर का आकर्षण अनुपस्थित था ,
मैं उसे घूर कर देख रही थी,
वो कोने में सिमटती जा रही थी ,
शायद, इन्फेरिओरिटी कोम्प्लेक्स सफर कर रही थी ।
हाय! पुरुष प्रधान समाज ......
तूने उसे भी न छोड़ा.....
उस पर भी छींटाकशी हो रही थी,
और वो बेपरवाह सी, अपने बारे में सोच रही थी
एकाएक मेरी ऑटो चल दी ...
मैं उसी देखती गई, देखती गई, देखती गई................
जबतक वो मेरी आँखों से ओझल न हो गई
और मेरी ऑंखें सवाली हो गई ..
ऑटो में बैठी - बैठी कुछ सोचती चली गई ........
और ऑटो मेरे स्टॉप से आगे निकल गई ......
उसके अस्तित्व ने शरीर और आत्मा को झकझोंर दिया
क्यों ? मैं खुद नहीं जानती
मेरी आँखों में उसका चित्र आज भी हैं ..
चित्रकार तो नहीं , पर लिखती जरूर हूँ .....
अतः कलम उठ गई,
मन के भावो को कागज पर उतार दिया ,
चित्त में शांति अभी भी नहीं हैं
न जाने ये अस्थिरता कब दूर होगी .....
दूर होगी भी या नहीं ...
मैं अनजान हूँ .
२५ मई १९९७
25 comments:
maaf karen. Par mujhe ismen kavita ka bhaav nahee dikhaai deta hai.
आपने कलम से चित्रकारी कर दी. आपके आदेशानुसार पूरी रचना पढी. रूक न पाया दूबारा पढना पडा. अगली बार जब कभी ऐसी लडकी को देखियेगा आटो को रुकवा लिजिएगा, यकीन मानिये फिर उस लडकी के पास दो नही चार हाथ होगे इस आदमखोर समाज से प्रतिकार करने के लिये. बहुत सघन सम्पन्न रचना
उस लड़की के इस हालत का कारण लगा अभाव।
कोमल भाव हृदय में जब हो छोड़े यही प्रभाव।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
इस श्रृष्टि पर जब से नारी की रचना हुई है...तभी से उसे न जाने किन किन रूपों और परिस्थितियों में...ताड़ना -प्रताड़ना झेलनी पडी है...ठीक ठीक तो नहीं ..परन्तु ..शायद वो कोई मजदूर महिला थी जिसने आपके मन को इतना आंदोलित किया...खुद नारी को होकर आपने उसके दर्द को समझा....आपसे बेहतर ये कौन समझ पाता...
कितनी ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति..उस अनजान को भावनाओं को सहजने में सफल..आह्ह!!
यह रचना तो सुंदर लगी .
जी ऐसे ही होता है कई बार...!कुछ लोग सीधा दिल से जुड़ जाते है..कुछ कहते से लगते है ..हमसे..!पर बात नहीं हो पाती...और हम सोचते ही रह जाते है...!काश हम उनसे पूछ सकें....
भई हमने आपकी पूरी कविता पढ़ी है, और पढ़ने बाद मन मैं हलचल हो गयी!! जिस स्त्री पर आपका मन व्यथित हुआ वो आखिर कौन है !!!
उस लड़की की जिस आतंरिक खूबसूरती को तुमने अपनी कविता में उतरा है वो एक अति संवेदनशील ह्रदय वाला व्यक्ति ही कर सकता है... शब्दों द्वारा अद्भुत चित्रण... वो लड़की वाकई खूबसूरत थी और तुम्हारी कविता भी...
zindagi me kai sawaal,kai mukaam aise aate hain,jab maun aansu,bebas aansu bankar rah jaate hain .........
आपने उसकी खूबसूरती की तारीफ भी की और कथित समाज के कारनामों से हिला कर रख दिया
jhakjhor dene wali rachana .......umda abhiwyakti
एक छोटी सी घटना की शानदार अभिव्यक्ति...
नीरज
ladki ki bahya sundarta ke sath uski aantrik sundarta ka varnan ,sath hi uske halat ko darshati is rachna ke bare mein kuch bhi kehna kam hoga kyunki jo aapne mehsoos kiya hai use dekhkar aur jis tarah shabdon mein bandha hai wo kabil-e-tarif hai....phir bhi us antahvedna ko har koi nhi samajh sakta jisse aap us pal gujri jab aapne use dekha.
shaandaar chitrn किया है आपने........... khoobsoorat शब्दों से लिखा है anjaan से ladki की बारे में........... par gahri baat bhi kah di hai saath saath........
anubhav aur abhivyakti jab ekakar ho jate hain tab ek kaaljayi rachna ka janma hota hai.....
aur bhi logon ne dekha hoga use ....lekin vo drishti na rahi hogi jo vidhata ne aapko bakhshi hai.............
yon laga maano ladki k roop me aapne bhaarat maa ko dekh liya
priyaji, aapki is abhinav, anupam aur adwiteeya rachna ko maine apni priya kavitaaon me sammilit kar liya hai.....isse adhik kahne ko kuchh nahin
BADHAAI !
wish you all the best & enjoy your tailent !
sirf ek kavita ki tarah dekhoon(jo mumkin nahi yakeenan) to ye kahoonga ki shuruvaat theek hai aur dheere rachna strong hoti jaati hai aur ant tak bahut takatvaar ho jaati hai...zordaar asar hota hai...haan kahin kahin par emotions itne clear express nahi huye hai...but the end result is real good one..
vaise mere hisaab se ye aapke personal anubhav se prabhaavit rachna hai...aur jab is baat ko dhyaan me rakhke isse judne ki koshish ki jaaye to ye ek naya aayam le leti hai...
maine ek apni post ka link aapko diya tha (while commentin on ur last post)..I was kind of hoping for some feedback there :)
ye rachna bahut acchi lagi ek dam dil ko kondne vale savaal ki tareh .... bahut baar ham apne aas paas ki ese drasyo se gujarte hai jo hamko jhanjhor kar rakh dete hai ......or apne desh me to aajkal ye drasya aam se ho gaye hai .....magar kuch aam nahi rehte dil me ek chubhan bankar thehar jaate hai .....
ek anjaan ke liye kuch lamho ki ye parakh or itni bhavukta bahut hi acchi lagi .......hatts of .....
bahut saari baatein kahna chata hoon par lagta hai ki lagbhag sabhi ne keh diya hai.bas itna hi kahoonga.....behad anushashit kvita hai.
Navnit Nirav
jab ye kavita likhi thi...tab aankhon ka sara sach..kab kavita ka roop le baitha......iska ehsaas bhi nahi hua.....post kiya tab bhi nahi socha... ki aap logo ke dilon par dastak degi...... par aapki pratikriyaon ne mujha bahut jayada utsahit kiya....ek vishwaas sa jagrat ho gaya hain man mein..... aapka pyar aur aashirwaad sada bana rahe .... isi mangal kaamna ke saath.....phir milegaya....agli post mein....
Priya
अत्यन्त भावपूर्ण शब्द चित्र....जो हृदय को उदिग्न कर गया.....
घटना को भावपूर्ण तरीके से रचनाओ में परोसा है ,,,शानदार अभिव्यक्ति
रचना बहुत अच्छी लगी....
आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....
एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर के रूप में...जरूर देखें..आप के विचारों का इन्तज़ार रहेगा....
बहुत ही सुंदर कविता है, लगा जैसे किसी जीती-जागती तस्वीर को देख रहा हूं....
ये पड़कर मुझे एक कविता याद आई...
एक आदमी हताशा से खड़ा था,
मै उसको नही जानता था पर उसकी हताशा को जानता था।
मैं उसके पास गया और हाथ बड़ाया,
वो मुझे नही जानता था पर मेरे हाथ बड़ाने को जानता था।
हम दोनो साथ चलने लगे न वो मुझे जानता था न मैं उसे जानता था पर हम दोनों साथ चलने को जानते थे।
aapne kaha isse pura padhne ko... yakin maniye nahi v likhti to koi v isse pura padhne se pahle khud ko rok hi nahi pata...
aapke kalam se issi tarah ki aur rachnao ka intejaar humesha rahega...
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