ये ना कहना कभी
के मैंने तुम्हे
तन्हा छोड़ा
याद है साथ चलते चलते
राह में अक्सर
मैं रुक जाया करता था
तो
तुम नाराज़ हो जाए करती थी
हर कदम पर मैने
ना जाने कितनी नज्में बोई हैं
हर नज़्म हाथ थामेगी
कुछ डेलिकेट हैं
कुछ गबरू ज़वान सी
कुछ शज़र का रूप ले चुकी होंगी अब तक
कुछ नज्में उम्मीद से भी हो शायद
ये माथे पर शिकन और लबों पे मुस्कुराहट
बात पूरी होने दो
फिर पोज़ देना
दरअसल वो नज्में नही है
जीरोक्स करके रखी है उम्र मैने
ज़ज़्बातों को छोड़ो
प्रॅक्टिकली सोचो
तो अब इस से ज़्यादा
मै
क्या दे सकता हूँ तुम्हे?
रोना मत
तुम्हारे आंसुओं से
ये चायनीज़ प्लांट भी नही फलने वाला
जानती नही क्या
आंसुओं में सॉल्ट होता है
औ मिट्टी में नमक हो तो प्लांट
मुरझा जाता है
हमारे रिश्ते में नमक ज़्यादा था शायद
चाय में चीनी कितनी लोगी ?
ओह! तुम तो विदाउट शुगर लेती हो
Wednesday, December 22, 2010
Saturday, December 18, 2010
रिप्लेस
रोज़ रोज़ बात करूँ भी तो क्या ?
बस यही सोच चुप हूँ हिचकियाँ नहीं आती मुझे
टेलीपैथी भी गई काम से
तुम्हे स्पेस चाहिए था ना
लो दिया मैंने
उम्र भर का स्पेस
एक बार वापस आ
देखना ज़रूर
तुम्हे किसने रिप्लेस किया है ?
Wednesday, December 15, 2010
आदमी सा वक्त
कितनी छिछली और सतही होती हैं
दीवारे वक़्त की
कभी उनमें कैद रुका सा आदमी
कभी बहता आदमी
दीवारे वक़्त की
कभी उनमें कैद रुका सा आदमी
कभी बहता आदमी
देखा तो होगा तुमने
दीवारों पे उड़ता आदमी
आदमी के मायने वक़्त है
या वक़्त के मायने आदमी
दगाबाज़ वक़्त या आदमी
मानो न मानो
ये वक़्त आदमी से कमतर नहीं
Monday, November 29, 2010
अक्षरों से बातें
अक्षरों
सुनो मेरी बातआओ मेरे पास
मैं तुम्हारे लिए वेणी बनाउंगी
खयालो से भी नाज़ुक
जलपरी से भी खूबसूरत
ज़ज्बात के जेवर पहना
एक अनुपम, अद्वितीय बाला बना
सोलह श्रृंगार कर
तुम्हे दुल्हन सा सजाऊँगी
तुम्हारे रूप पे कुर्बान
कुछ फक्कड़,
कुछ अनजान लोग
होंगे तेरे कद्रदान
करेंगे तुम्हारी पहचान
रत्न को परखते जोहरी के मानिंद
कुछ खुसरो, तकी मीर या ग़ालिब जैसे
रहस्यवाद और छायावाद में गुसल करते
प्रसाद, निराला और पन्त जैसे
तुझे भक्तिमार्ग में ले जा रहीम, रसखान
मीरा में बदल दें तो
प्रसिद्धि मिल जायेगी
ये सारे
अलग-अलग नामो से पुकारेंगे तुम्हे
इन सब से प्यार करना
किसी के ह्रदय पर कविता बन राज करना
किसी के उर नज़्म बन समाँ जाना
कोई शायरी कह आवाज दे शायद
तो किसी के लिए भीनी ग़ज़ल बन.....
जुबाँ से फिसल जाना
सभी के मन के अथाह सागर में
एक कोमल स्थान तो मिलेगा तुझे
ऐसा वादा है मेरा
एक निशब्द, अनजाना
लेकिन फिर भी जाना-पहचाना
अर्थयुक्त रिश्ता बन
बिन सवालों का जवाब तलाशे
दिल में राज करोगे तुम सारे
ऐसा नसीब सबका नहीं होता
कोई किसी के इतने करीब भी नहीं होता
मेरे निश्छल स्वभाव को पहचानो
चले आओ ......
कोई विनिमय नहीं
व्यापार नहीं
मेरा क्या ?
एक दिल ही है जों
बहल जाएगा
तुम्हारी इज्ज़त में इजाफा हो जायेगा
तो हे अक्षरों, शब्दों, मात्राओं, चन्द्र-बिंदियों
चले आओ
साथ में अल्प विराम और पूर्ण विराम
को भी लाओ
अब कैसी ये दूरी ?
कैसा फासला?
कैसा संकोच?
Tuesday, November 23, 2010
मौजूदगी
तेरे जाने का सबब मालूम नहीं
आने की भी वजह कहाँ थी कोई
आज बहुत याद आये तुम
सोचती रही
क्यों किया ऐसा ?
कोई गलती बताते मेरी
गुस्सा करते,
चीखते, चिल्लाते, झगड़ते
इल्ज़ाम लगाते
बिन आहट चले गए
दबे पाँव
अलमारी खोली
फाइल निकाली
वो नन्ही सी डायरी ...
जिसमें सिर्फ एक निशानी है तुम्हारी
तुम्हारा नाम
अपने ही हाथो से लिखा था तुमने
उन अक्षरों को बार-बार छू
तुम्हारी मौजूदगी को महसूस किया मैंने
अब इस बात पर तो कोई ऐतराज़ नहीं ना ?
आने की भी वजह कहाँ थी कोई
आज बहुत याद आये तुम
सोचती रही
क्यों किया ऐसा ?
कोई गलती बताते मेरी
गुस्सा करते,
चीखते, चिल्लाते, झगड़ते
इल्ज़ाम लगाते
बिन आहट चले गए
दबे पाँव
अलमारी खोली
फाइल निकाली
वो नन्ही सी डायरी ...
जिसमें सिर्फ एक निशानी है तुम्हारी
तुम्हारा नाम
अपने ही हाथो से लिखा था तुमने
उन अक्षरों को बार-बार छू
तुम्हारी मौजूदगी को महसूस किया मैंने
अब इस बात पर तो कोई ऐतराज़ नहीं ना ?
Tuesday, October 19, 2010
ख्वाब, ख्वाइश, तंज़
एक मुद्दत से तमन्ना है सिगार पीने की
चिंताओं को धुंए के गुबार में उड़ा देने की
हुक्के की गुड-गुड से सियाह ख्यालों को स्वाहा कर..
रक्काशो पर रुपया लुटाने की
चिलम को मुह में दबा, गमो का मसनद बना
सारे रिवाजो को घुँघरू पहना, ठहका लगाने की
रम, बीअर व्हिस्की वाइन का कॉकटेल बना
जाम हाथ में पकड़ झूम जाने की
ऐसे में कोई फ़िल्मी धुन बज उठे,
कदम थिरक उठे
और हम गा दें फिर
" मैंने होठों से लगाई तो हंगामा हो गया"
ख्वाइशे भी अजीब होती है ना
आज मेरी कलम बेबाक मूड में है
तोड़ दी मर्यादाएं सारी
जात इंसान की होती है
ये तो बदजात निकली
खैर!
ख्यालों को यूँ बहा सुकूँ से हूँ
बेलगाम होने का सुख
तृप्त हुई मै
आज़ाद !
मै एक आज़ाद रूह हूँ
छिः यू हिप्पोक्रेटिक डबल स्टैण्डर्ड पीपल
तुम दुनिया से विलुप्त क्यों नहीं होते ?
चिंताओं को धुंए के गुबार में उड़ा देने की
हुक्के की गुड-गुड से सियाह ख्यालों को स्वाहा कर..
रक्काशो पर रुपया लुटाने की
चिलम को मुह में दबा, गमो का मसनद बना
सारे रिवाजो को घुँघरू पहना, ठहका लगाने की
रम, बीअर व्हिस्की वाइन का कॉकटेल बना
जाम हाथ में पकड़ झूम जाने की
ऐसे में कोई फ़िल्मी धुन बज उठे,
कदम थिरक उठे
और हम गा दें फिर
" मैंने होठों से लगाई तो हंगामा हो गया"
ख्वाइशे भी अजीब होती है ना
आज मेरी कलम बेबाक मूड में है
तोड़ दी मर्यादाएं सारी
जात इंसान की होती है
ये तो बदजात निकली
खैर!
ख्यालों को यूँ बहा सुकूँ से हूँ
बेलगाम होने का सुख
तृप्त हुई मै
आज़ाद !
मै एक आज़ाद रूह हूँ
छिः यू हिप्पोक्रेटिक डबल स्टैण्डर्ड पीपल
तुम दुनिया से विलुप्त क्यों नहीं होते ?
Monday, October 11, 2010
स्रष्टि का निर्माण
कल पूर्णिमा थी
कलसे में भर ली चांदनी
आज सहर होते ही
आफताबी किरने भर ली
मटके में मैंने.
दरिया किनारे छुपा दिया मटका
कल रात जब
बादल चाँद को ढकेंगे
सिर्फ तारे आसमा से झाकेंगे
उनका बिम्ब दरिया के पानी पे बनेगा
तब तारो की परछाइयाँ बटोरूंगी
उस कलसे को हिफाज़त से सहेजूंगी .
ऐसा जाम किसी ने न बनाया होगा
खुदा को भी ये ख्याल ना आया होगा
लोग तो चाँद- तारे तोड़ने की बात करते है,
उनकी धरती से उनको छीनने की चाह रखते है
तेरे लिए ही तो मैं स्रष्टि बना रही हूँ
पञ्च तत्व बटोर कर ....
कुछ गहने पहना रही हूँ
मेरे हिस्से का आकाश इसमें समाया है
हवाओ के गेसुओ को इसमें पिरोया है
मेरी उर्जा की अग्नि का इसमें चूरन है
खिलखिलाहट से नम हुई आँखों का इसमें पानी है
मेरी सहनशक्ति धरती सी दीवानी है
मैंने जीते जी इन पञ्च तत्वों को तुमको भेट किया है
कहीं कोई दुनिया में ऐसी कहानी हो तो बताओ
ऐसा उपहार गर किसी ने किसी को भेट किया हो तो सुनाओ
तुम मुझे याद रखो
या के भूल जाओ
मैं न भूलूंगी
तुम्हे पूर्ण करने के लिए
मैंने क्या कुछ न किया .
प्रिया
Wednesday, September 29, 2010
हमको यूँ ही तो परिंदों से प्यार नहीं
कुछ तो है जों ख़ास नहीं ,
हमको यूँ ही तो परिंदों से प्यार नहीं,
क्यों न आज इस राज से पर्दा उठाये ,
इस उन्सियत का किस्सा सुनाये.
हमको यूँ ही तो परिंदों से प्यार नहीं,
क्यों न आज इस राज से पर्दा उठाये ,
इस उन्सियत का किस्सा सुनाये.
इस कायनात में ...
हमने रंग भरना चाहा
गगन के कैनवस पर ...
मगन होकर मुझ कविता ने
एक गीत लिखना चाहा
हमने रंग भरना चाहा
गगन के कैनवस पर ...
मगन होकर मुझ कविता ने
एक गीत लिखना चाहा
मदमस्त चौकड़ी भरती
हिरनी सी लेखनी मेरी
गीत की जगह तस्वीर सजा बैठी
ख्वाबों का आशियाँ बना बैठी
हिरनी सी लेखनी मेरी
गीत की जगह तस्वीर सजा बैठी
ख्वाबों का आशियाँ बना बैठी
ऐसा भी कभी होता है कहीं
लफ्ज़ आकर लेते है क्या कभी
कुछ तब्दीलिया हुई थी कहीं
वरना लेखनी की ऐसी हिमाकत तो नहीं
कोई स्पर्श मेरे हाथो से टकराया था
उसने हौले से ब्रुश पकड़वाया था
मेरे जहन, दिल को इशारे पे नचाया था
ये तस्वीर उसके ही वजूद का सरमाया था
तस्वीर बहुत प्यारी थी ,
भविष्य की सारी जानकारी थी
घर, आँगन, फूल, ऋतुएँ
हरियाली परिंदे थे
चाह्चाहती सुबह ,
गुदगुदाती शामें थी
खुशगवार आलम था
भविष्य की सारी जानकारी थी
घर, आँगन, फूल, ऋतुएँ
हरियाली परिंदे थे
चाह्चाहती सुबह ,
गुदगुदाती शामें थी
खुशगवार आलम था
लेकिन!
बादलों का कुछ और ही मन था
उनको भी वही अपनी आँखें नम करनी थी
तस्वीर के कच्चे रंगों पर ही वो गिरनी थी
बादलों का कुछ और ही मन था
उनको भी वही अपनी आँखें नम करनी थी
तस्वीर के कच्चे रंगों पर ही वो गिरनी थी
कोई एब्सट्रैक्ट आर्ट रह गई थी अब वहाँ
जिसका कोई एक मतलब नहीं होता है यहाँ
सबके दिमाग अलग ढंग से सोचते हैं
एक तस्वीर के हज़ार व्याख्यान परोसते हैं
अरे हाँ !
कुछ बचा था वहाँ
दो परिंदे
एक तो मेरे पास महफूज़ है
दूजे को हिफाज़त से उड़ा ले गया कोई
सलामत है वो
है यही कहीं
लेकिन
तलाशती हूँ उसको
शायद दिख जाए मुझको
पगली सी हर परिंदे की तस्वीर खिचती चलती हूँ
फिर मिलान करती हूँ उसका अपनी एल्बम से
बेवकूफ! मैं
नहीं समझती
परिंदे होते नहीं ठहरने के लिए
वो तो बने हैं सिर्फ उड़ने के लिए
बस ! इसीलिए मैं उनसे प्यार करती हूँ
क्योंकि मैं भी परवाज़ में विश्वास करती हूँ
Saturday, September 18, 2010
कच्चे धागों का पक्का रिश्ता
कैसे बनता है कोई रिश्ता ?
मन के कच्चे धागों का
पक्का रिश्ता
खोने-पाने का भय नहीं
बंधन की चाह नहीं
वो नज़र-अंदाज़ करें
तब गुस्सा तो आता है
लेकिन
गिला जैसी कोई बात नहीं
कहीं छूट ना जाये ये डोर
डर तो है लेकिन
अफ़सोस जैसे हालात नहीं
भावों को जता दूं मैंमन के कच्चे धागों का
पक्का रिश्ता
खोने-पाने का भय नहीं
बंधन की चाह नहीं
वो नज़र-अंदाज़ करें
तब गुस्सा तो आता है
लेकिन
गिला जैसी कोई बात नहीं
कहीं छूट ना जाये ये डोर
डर तो है लेकिन
अफ़सोस जैसे हालात नहीं
ऐसे शुष्क भी जज़्बात नहीं
उन्हें जान-पहचान की
खबर तो है
लेकिन
मन की सीलन
का अंदाज़ नहीं
मालूम है! एक दिन
ये शोर थम जाएगा
मन के कच्चे आँगन
पर नया रंग पुत जाएगा
लेकिन जब कभी
फिजा में
स्वर सुनाई दिया तो
हौले से
धड़कने बढ़ जाए शायद
रूह मचल जाए शायद
सन्नाटा पसर जाए शायद
तब
इस बेशर्त रिश्ते पे
किसी टिपण्णी की
कोई दरकार नहीं
-------प्रिया
Friday, September 3, 2010
काश! मैं लड़का हो जाऊं
काश के मैं लड़का हो जाऊं
फिर समझूं
ये दादागिरी टाइप चीज़ क्या होती है
बिन निमंत्रण दावत उड़ाने का क्या मज़ा है
बिन गिफ्ट पार्टी में शिरकत से क्या फील होता है
बियेअर, वाइन, व्हिस्की रम
इसके साथ वीकेण का क्या मज़ा है
दोस्तों से उधार ले ना चुका पाने का एक रुतबा
किसी ढाबे पे बिन पेमेंट खाना खाने का आनंद
वो सिगरेट के कश के साथ सारे डिशकशन
ये कैसी अनुभूति देते हैं ?
लड़की को देख दिल का लडखडाना,
गर्ल्स कॉलेज और हॉस्टल के सामने
पूरा दिन बिताना
वो बेमतलब लड़कियों का पीछा कर
मीलों की दूरी तय करना
किस तरह का अचीवमेंट है ?
बिन सूचना दिए घर से कहीं भी चले जाना
वो देर रात वापस आना
वो माँ का टोकना
पापा का मारने के लिए दौड़ना
बहन का बचाना
फिर झूठे बहाने बनाना
सुबह उठ सब भूल भाल
पुराने धंधे में लग जाना
काश! मैं लड़का हो जाऊं
तो जानू इसका मज़ा क्या है?
स्पाइकी हेअर,स्टाइलिश लुक
माल्स में रश
बाईक में गर्ल फ्रेंड
उधार की गाडी
वो ठीक दस बजे वापसी की ज़िम्मेदारी
रिजर्व में पेट्रोल
जेब में पैसे गोल
पैदल गाड़ी की ढुलाई
लौटाते वक़्त दुश्मन दोस्त
की प्रेम भरी धुनाई
साला! बेवजह एक लड़की के खातिर
फजीहत उठाई
यार! लेकिन इम्प्रेशन बन गया इस बार
नेक्स्ट वीक डेट पर आने को तैयार है
केलेंडर में वो दिन तो बड़ा ख़ास है
काश! मैं लड़का हो जाऊं तो जानू
ये कैसा सुख है ?
इनमें से कुछ नहीं किया मैंने
उठने बैठने का सलीका,
जुबां में तहजीब
आने -जाने की इजाजत
हर फैसले में हिस्सेदारी
आखिर कुछ तो सीखो जिम्मेवारी
तुम पर भरोसा है बेटा
लेकिन ये दुनिया बहुत बुरी है
और मेरी गुडिया सीधी बड़ी है
बस इसलिए तो टोकते हैं
तेरा भला सोचते हैं
इसलिए तो रोकते हैं .
सोचती हूँ शादी के बाद ही कुछ कर गुजरूँ
आजा रे कन्हया तोहे राधा बनाऊ के तर्ज़ पर
पति देव को क्यों ना लड़की बनाऊं
और खुद लड़का बन
उन्हें भी लड़की होने के मजे बताऊँ :-)
( नोट :- मेरी इस रचना का उद्देश्य लड़की Vs लड़का जैसी किसी भी जंग झेड़ने का नहीं है, हमने लिख कर आनंद लिया....आप पढ़ कर आनंद लीजिये )
तेरे जाने का सबब मालूम नहीं
आने की भी वजह कहाँ थी कोई
आज बहुत याद आये तुम
सोचती रही
क्यों किया ऐसा ?
कोई गलती बताते मेरी
गुस्सा करते,
चीखते, चिल्लाते, झगड़ते
इल्ज़ाम लगाते
बिन आहट चले गए
दबे पाँव
अलमारी खोली
फाइल निकाली
वो नन्ही सी डायरी ...
जिसमें सिर्फ एक निशानी है तुम्हारी
तुम्हारा नाम
अपने ही हाथो से लिखा था तुमने
उन अक्षरों को बार-बार छु
तुम्हे मौजूदगी को महसूस किया मैंने
अब इस बात पर तो कोई ऐतराज़ नहीं ना ?
,
आने की भी वजह कहाँ थी कोई
आज बहुत याद आये तुम
सोचती रही
क्यों किया ऐसा ?
कोई गलती बताते मेरी
गुस्सा करते,
चीखते, चिल्लाते, झगड़ते
इल्ज़ाम लगाते
बिन आहट चले गए
दबे पाँव
अलमारी खोली
फाइल निकाली
वो नन्ही सी डायरी ...
जिसमें सिर्फ एक निशानी है तुम्हारी
तुम्हारा नाम
अपने ही हाथो से लिखा था तुमने
उन अक्षरों को बार-बार छु
तुम्हे मौजूदगी को महसूस किया मैंने
अब इस बात पर तो कोई ऐतराज़ नहीं ना ?
,
Tuesday, July 27, 2010
लड़ाई के बहाने
बहुत दिन हो गए हैं
झगडा किये उससे
ढूढता रहता हूँ
लड़ाई के बहाने अक्सर
सुबह ही टी-सेट का नया कप तोडा,
गीला तौलिया बिस्तर पर छोड़ा,
बाथरूम में साबुन का झाग फैलाया,
पोंछे के वक़्त चप्पल के साथ अंदर आया,
गार्डनिंग के बहाने गमला तोडा,
टेस्टी ब्रेकफास्ट प्लेट में आधा छोड़ा
दोपहर के खाने पर भी मुहं बिचकाया
कमरे में उसके घुसते ही
रिमोट पर हाथ अजमाया
इतने पर भी वो कुछ नहीं बोली
स्टाइल से पूछा " एवरीथिंग इस नोर्मल
तुम्हारे टाइप की बनाने की कोशिश कर रही हूँ
चहकती रहती हूँ ना दिनभर
संजीदा रहकर बुद्धिमान बन रही हूँ
मेरी बक-बक से तुम्हारा दिन ख़राब होता है ना
आज खामोश रहकर तुम्हारा साथ दे रही हूँ
ओहो! तो ये एक हफ्ते पुरानी कहानी है
इसी वास्ते रूठी-रूठी सी मेरी रानी हैं
सोचता हूँ ..इगो परे कर कह ही दूं
के ये बदलाव मुझे अच्छा नहीं लगता
तेरे गुस्से, बिन घर, घर नहीं लगता
इसी वास्ते रूठी-रूठी सी मेरी रानी हैं
सोचता हूँ ..इगो परे कर कह ही दूं
के ये बदलाव मुझे अच्छा नहीं लगता
तेरे गुस्से, बिन घर, घर नहीं लगता
औ डांट बिन सन्डे, सन्डे नहीं लगता
शाम साथ में आउटइंग का प्लान करता हूँ
वापस आकार फिर से लड़ता हूँ
सच्ची! कितने दिन हो गए हैं दोस्तों !
उसके गुस्से की बरसात से भीगा नहीं हूँ मैं
शाम साथ में आउटइंग का प्लान करता हूँ
वापस आकार फिर से लड़ता हूँ
सच्ची! कितने दिन हो गए हैं दोस्तों !
उसके गुस्से की बरसात से भीगा नहीं हूँ मैं
" प्रिया "
Friday, July 16, 2010
संभाल लो मुझे
भीड़ सी मेरे आस-पास चलती रहती है
तन्हाई मुस्कराहट का लिबास ओढ़े खड़ी रहती है
एक बाज़ार सा माहौल है मेरी दुनिया में
जहाँ सब कुछ बिकता है
एक दूकान तो मेरे अन्दर भी खुल रही है
कोई झुन्झुलाहट या झल्लाहट पनप रही है
किसे बेचू ? कौन खरीदेगा ये सब ?
मोल-भाव में अभी कच्ची हूँ .
मेरे ख्वाइशों की परवाह कौन करता हैं
यहाँ तो ख्वाबों का भी दाम लगता है
फिर भी मन के किसी कोने में
एक उम्मीद जल रही है
वो आये आके थाम ले मुझे,
तलाश ले वो, जो मेरा वली है
इससे पहले के मेरा ज़मीर लुट जाए
जहन मैला हो जाए
संभाल लो मुझे.
"प्रिया "
Wednesday, July 7, 2010
प्रकृति, पुरुष और एक प्रयोग
सोचती हूँ
आज डूबने न दू सूरज को
साँझ साथ न काटूँगी
आज की रात
मैं तेरे खातिर
अपना घर , परिवार
सहेलियां, बचपन सब
त्यागने वाली हूँ
तू मेरे खातिर
एक रात नहीं ठहर सकता?
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा ?
लोग कहेंगे
एक बार सूरज ही नहीं डूबा
चाँद ही नही निकला,
सितारे नही चमके आसमां पर
कुछ अध्यात्म से जोड़ेंगे
कुछ वैज्ञानिक रहस्य टटोलेंगे
फिर चर्चाओ का बाज़ार गर्म होगा
तुझ पर नया शोध होगा
ज्योतिषो की दुकान चल निकलेगी
बस ग्रहो के चाल बदलेगी
नाम तो है ही तुम्हारा
और प्रसिद्धी मिल जायेगी
मेरी बात जो मानोगे
तो चैनल्स को भी टी०आर०पी० मिल जाएगी
मैं जो कल थी
वही रह जाऊंगी
जननी तो स्रष्टी ने ही बनाया
तुम गर चाह लो तो .........
नियंत्रिका भी कहलाऊंगी
एक बार नैसर्गिक नियम तोड़ कर देखो ना
थोडा सा जोखिम लेकर देखो ना
तुम पुरुष हो और मैं प्रकृति
हम दोनो एक दूजे से ही है
तो फिर
मेरी बात मानने से इनकार क्यों ?
सुनो ना!
रुक जाओ
हमेशा तो सोचते हो
ब्रहमांड के बारे में
आज मेरे और अपने खातिर
अंधेरे को रोशन कर दो
चौबीस घंटो का उजाला कर दो
वो भेड़ चाल कब तक चलोगे?
कुछ नया प्रयोग करके देखो ना
ना डूबो आज पश्चिम में
एक रात तो धूप खिलाकर देखो ना
"प्रिया"
Friday, June 18, 2010
ओ मेरे मानसून!
हमारे लखनऊ में अब तक मानसून नहीं आया .....गर्मी से हाल बेहाल है और ऊपर से ह्यूमिडिटी ...उफ्फ्फ जानलेवा ....हवा को भी ऐतराज़ है बहती नहीं आजकल. मूड हुआ तो लू बन उडती फिरती है ....शाम ठंडी बयार बन नहीं बरसती .....तो मोरल ऑफ़ द स्टोरी ये है की मौसम ने हमें दुखी कर रखा है....... बुला रहे हैं मानसून को शायद सुन ले मेरी पुकार ....लेकिन बैलेंस बना के आना और टाइम से वापस भी चले जाना...ज्यादा मेज़बानी नहीं होगी हमसे :-)
बड़ी व्याकुलता है दिल में मेरे
किस तरह छुपाऊं खुद को ?
खूबसूरत हूँ मैं
इसमें मेरा दोष नहीं
और तुम हो कि
जरा भी होश नहीं
इसमें मेरा दोष नहीं
और तुम हो कि
जरा भी होश नहीं
वृक्ष लहरा- लहरा घटा को बता देते हैं
बादल गरज-गरज मुझे छेड़ जाते हैं
हवा बदन को छू केशो से खेल जाती है
वारिधि के इशारे पर
दामिनी तड़ित हो मेरा चित्र खींच ले जाती हैं
एक उल्का ने गिर बताया हैं मुझे
एक रहस्य से अवगत कराया है मुझे
चपल दामिनी ने तारो को मेरा चित्र भिजवाया है
कुछ तारों का तो मन भी मचल आया है
कुछ तारों का तो मन भी मचल आया है
ये जान नयनों की सरिता कहाँ थमने वाली है,
जब फाख्ता आँगन पर बैठ ...
अपनी सखी से मेरी कथा बता रहा था
पास क्यारी में भंवरा मिलन गीत गा रहा था
उसके पंखो पे सन्देश लिख भिजवाया है
अब जों देर की तो बड़ा पछताओगे
मेरे बिना तो अधूरे ही कहलाओगे
Sunday, June 6, 2010
आई ऑब्जेक्ट ऑनर किल्लिंग / I Object Honour Killing
दिल दुखता है जब सुनते हैं कि मोहब्बत करने के जुर्म पर किसी लड़के को या लड़की को या फिर प्रेमी- युगल को परिवार या फिर सामाजिक ठेकेदारों द्वारा सजा सुना दी जाती है. क्या हक बनता हैं उनका किसी क़ी जिंदगी के बारे में फैसला करने का? और खासकर तब जब पैरंट्स अपनी झूठी मान और शान के लिए अपने बच्चो को ही मारने से नहीं कतराते. (मीडिया ने नाम दिया हैं ऑनर किल्लिंग, आई ऑब्जेक्ट दिस टर्म - इनकी तो आदत ही हैं कांसेप्ट और शब्द चोरी की) क्या जान लेकर पितृ-ऋण चुकाया जाता है? हमको ज्ञान नहीं है परम्पराओं का, रीति-रिवाजो का, गोत्र, धर्म या क्षेत्र क़ी मान्यताओ का और हम जानना और समझना भी नहीं चाहते ....जों चीज़े हमें इंसानों में फर्क करना सिखाती हैं .....दोहरे मापदंड सिखाती हैं उनसे हम दूर ही अच्छे. कम से कम शान से इतना तो कह सकते हैं कि इंसान बनने कि कवायत नहीं कर रहे ....हम इंसान ही हैं ...शुद्ध, शरीर से भी और आत्मा से भी.
हम सामाजिक सोच को तो नहीं बदल सकते......लेकिन अपनी रचना के किरदारों का भाग्य तो लिख सकते हैं. कहते हैं कि प्यार त्याग मांगता है तो यही सही.... हमारे किरदार मोहब्बत को अपनाते हैं और त्याग से पीछे नहीं हटते.....जीवन खूबसूरत है ......ये हो सकता है हल शायद.......
तू मेरी धरती का पौधा नहीं
मै तेरी बस्ती की बेटी नहीं
तेरा देवता अलग
मेरा पूजन जुदा
जब खुदा है अलग
तो दिल कैसे मिला ?
तूने अपने जज्बे को कुचला
मैं जानती हूँ ,
मैंने अपने भावो को दफनाया
मानती हूँ ,
बच गए हम दोनो वरना
बेमौत मारे जाते ,
इन रस्मो- रिवाजो से बगावत
करते तो कहाँ जाते ?
अब जी कर एक अनूठा
अनुबंध करते हैं,
तुम अपने सीने में
मेरा बुत रखना ,
सजदा किया करना
मै सुबह शाम तेरे नाम से
दीपक जलाऊँगी ,
उसी लौ से मांग सजाऊँगी .
मेरा पूजन जुदा
जब खुदा है अलग
तो दिल कैसे मिला ?
तूने अपने जज्बे को कुचला
मैं जानती हूँ ,
मैंने अपने भावो को दफनाया
मानती हूँ ,
बच गए हम दोनो वरना
बेमौत मारे जाते ,
इन रस्मो- रिवाजो से बगावत
करते तो कहाँ जाते ?
अब जी कर एक अनूठा
अनुबंध करते हैं,
तुम अपने सीने में
मेरा बुत रखना ,
सजदा किया करना
मै सुबह शाम तेरे नाम से
दीपक जलाऊँगी ,
उसी लौ से मांग सजाऊँगी .
रोके! आके हमें कोई
जुदा कर भी वो हमें जुदा ना कर पायेंगे
मन के बंधन तो अब और मजबूत हो जायेंगे.
बस तुम्हारे घर पालकी ना उतरेगी
अनाज से भरे कलश पर ठोकर ना पड़ेगी
मुख्य द्वार पर आलते के छापे ना होंगे
वो गहने जों बचपन से माँ ने बनाये हैं
अब ना सजायेंगे मेरे तन को
सुर्ख जोड़ा पहन सोलह श्रृंगार ना कर पाऊँ
मेरे घर द्वारचार ना होगा
विदाई ना होगी मेरे बाबुल के घर से
Friday, May 28, 2010
याद बिल्कुल नहीं आते मुझे तुम
सोचते होगे के
याद आते हो मुझे तुम
गलत हो तुम
हमेशा की तरह
मैं उनमें से नहीं
के यादों की गठरी
साथ बाँध टहलू.
गुज़रे को भूल
वर्तमान को जीती हूई
भविष्य का निर्माण
आदत है मेरी.
कल एक कॉमन फ्रेंड
से मुलाकात हुई
उसके साथ मिल
तुम्हारी बुराई में
पूरा दिन गुज़ारा.
शब् तक झगड़ पड़ी उससे
तुम्हारी बुराई में ....
मुझसे ज्यादा पार्टीसिपेट किया उसने.
मुझसे ज्यादा कोई बुरा कहे तुम्हे .....
ये बर्दाश्त नहीं मुझे.
भले ही तुमने ना दिया हो
भले ही मैंने ना लिया हो
" हक"
कुछ कहने- सुनने का.
अब कोई खुशफहमी मत पलना
यहीं
कि तुम मुझे याद आते हो.
इतना तो याद ही होगा
कि एक्सपायरी डेट की दवा
नहीं रखती मैं मेडिकल बॉक्स में.
जैसे मुझे याद हैं -
टेलकम पावडर
डाल -डाल कर तुम्हारा
जुराबे पहनना
सुधरे तो होंगे नहीं तुम
याद बिल्कुल नहीं आते मुझे तुम.
प्रिया
Sunday, May 16, 2010
रूमानी मौसम
अभी कुछ दिनों पहले मौसम की आशिकी का शिकार हुए हम। मतलब सूरज का कम्प्लीटली किडनैप हो गया। घुमड़ - घुमड़ बादल गरजे.....मस्तानी सी हवा बह चली .... बारिश जैसा माहौल बना लेकिन बूंदों को बादल ही गटक गया....दो-चार गिरी....और बावरी धरती को धोखा हो गया....धरती भीगी नहीं इस बार .....थोडा और इंतज़ार ...लेकिन वसुंधरा पर महोत्सव हुआ....पंछियों ने लोकगीत गाये तो वृक्षों ने किया नृत्य.....ऐसे में हमारी क़लम मचली ....बहुत रोका- टोका लेकिन हमेशा की तरह कर गई बगावत। ढीढ कहीं की...बेलगाम होती जा रही हैं....अब देखिये इसकी हरकत........
सोंधी - सोंधी हवा,
गीली गीली यांदें,
भीनी-भीनी माटी,
थिरकती शाखे
एक काला सफ़ेद बादल ...
सूरज निगल गया।
दिल में दबा -दबा सा
एक पल रुका-रुका सा
मोर बन के
लबों से सरक गया।
पलाश की लाल घंटिया
रास्तो पर बिछ गई
रौनक ऐसी देख ....
हर श्रृंगार की कलियाँ चटक गई ।
चटकी फिर एक लम्हा भी ...
ना शाखों पर वो रुकी
पिय मिलन को आतुर
बिन मुहूर्त विदा हुई।
गीली गीली यांदें,
भीनी-भीनी माटी,
थिरकती शाखे
एक काला सफ़ेद बादल ...
सूरज निगल गया।
दिल में दबा -दबा सा
एक पल रुका-रुका सा
मोर बन के
लबों से सरक गया।
पलाश की लाल घंटिया
रास्तो पर बिछ गई
रौनक ऐसी देख ....
हर श्रृंगार की कलियाँ चटक गई ।
चटकी फिर एक लम्हा भी ...
ना शाखों पर वो रुकी
पिय मिलन को आतुर
बिन मुहूर्त विदा हुई।
पत्तों ने भी गले लगा
बाबुल का फ़र्ज़ निभा दिया
सिली -सिली सी आँखों से
कली को विदा किया
आंधी में टूटी अमियाँ
इधर - उधर बिखरी हैं
ज्यूँ बिटिया-ब्याह के बाद
अंगना में फैली
सामानों की लड़ी हैं ।
कल का हंसी वो मौसम
थोड़ी राहत तो दे गया
मन हो मदहोश जिसमें
ऐसी रूमानी बरसात दे गया ॥
सिली -सिली सी आँखों से
कली को विदा किया
आंधी में टूटी अमियाँ
इधर - उधर बिखरी हैं
ज्यूँ बिटिया-ब्याह के बाद
अंगना में फैली
सामानों की लड़ी हैं ।
कल का हंसी वो मौसम
थोड़ी राहत तो दे गया
मन हो मदहोश जिसमें
ऐसी रूमानी बरसात दे गया ॥
प्रिया
Wednesday, April 28, 2010
बड़ा गुरुर है गूगल को
बड़ा गुरुर है गूगल को
अपनी सोच
अपनी तकनीक पर
नंबर वन सर्च इंजन बना फिरता हैं
खोजी दस्तों का
गर तुमको ढूंढ के लाये वो ।
"प्रिया"
Wednesday, April 7, 2010
सोचो ! जो हम परिंदे हो जाए
कभी - कभी यूँ ही
उठ जाते हैं दिल में
मासूम ख्याल
तुम्हारे साथ।
उड़ना चाहती हूँ
परिंदों जैसे।
सोचो !
जो हम परिंदे हो जाए।
किसी इलेक्ट्रिक वायर पर
बैठ चूँ-चूँ करें।
किसी टेलेफ़ोन टॉवर
पर बसेरा हो अपना।
घरो के सामने
बहती नाली पर
दोनों मिलकर पानी पिए।
फिर मैं फुर्र से उड़ जाऊं
तुम चीं चीं करते
ढूढने आओ मुझे ।
पूरा कुनबा मिलकर
पड़ोस वाले अरोड़ा साब
की छत पर फैले अनाज की
दावत उड़ाए।
किसी के आमद की आहट से
सारे एक साथ उड़ जाएँ।
जब तुम कैटरपिलर पर
मुहं साफ़ करो
तो मैं रूठ जाऊं
क्योंकि
मुझे नोन-वेज पसंद नहीं।
फिर तुम नन्हे से ...
गड्ढे में भरे
चुल्लू भर पानी में
गोता लगा, कसरत दिखा
मनाओ मुझे।
मैं तुमसे अलग
कुछ दूर फुद्कूं
पर
जल्द मान जाऊं।
रात में मेहनत के तिनको
से बने
बिन दरवाजे के घोसले पे
बेफिक्र तेरे सहारे सो जाऊं।
ज्यादा तमन्नाए कहाँ है मेरी
छोटी -छोटी चाहते
और संघर्ष में तुम्हारा साथ
क्या ऐसा ख्याल भी है
भौतिकवाद ?
Friday, March 19, 2010
अब निर्णय तुम्हारा है
मेरी ये रचना भारत की उन स्त्रियों के लिए है जो बस बिटियाँ है, बांके की दुल्हन हैं, छुट्टन की अम्मा है। कहीं बडकी, मझली, छुटकी है उनके पास खुद का नाम नहीं, कोई पहचान ही नहीं, विरोध उसका स्वभाव ही नहीं, जो कुछ परिवार, समाज से मिला उसको भाग्य मान बैठी (मौन है तो ?क्या लेकिन सब समझती है )...देश ने वोट का अधिकार तो दिया लेकिन सर उठाकर जीने का हौसला नहीं। सोचती हूँ यदि महिला आरक्षण को मंजूरी मिल भी जाए तो क्या उनका भाग्योदय होगा ? या फिर मंत्रियों की पत्नियां और प्रशासनिक अधिकारियों के परिवारों की स्त्रियाँ ही इस का लाभ उठा पाएंगी ....खैर इस विवादित प्रश्न को विराम देते है। मुझे लगता है क़ि बनी बनाई व्यवस्था को बदलने के लिए कानून की नहीं बल्कि वैचारिक क्रांति और नज़रिए में बदलाव की जरूरत होती है.....इस विषय पर फिर कभी .......अभी तो बेनामी में खोई उन तमाम स्त्रियों की अंतर्मन की जुबा को मेरी कलम की तरफ से आवाज़ :-
स्त्री हूँ मैं
हमेशा से कमजोर समझते आये हो मुझको
नवरात्रि में
दुर्गा सप्तशती का पाठ
करते देखा है मैंने
क्यों?
मेरे शक्तिस्वरूपा, तेजस्वी, ओजपूर्ण
रूप से डर गए क्या ?
ओह! तो स्वार्थी हो तुम
पूजते हो क्योंकि -
मुझ दैवीय स्वरुपा की नज़र तिरछी हुई तो
नुक्सान हो सकता है.
अच्छा ! तो बल से डरते हो
मन से छल करते हो
कितने दोगले हो तुम
कितनी बार भावनात्मक खेल खेला है तुमने
राजनीति भी कर लेते हो अक्सर
और तुम्हारी कूटनीति का तो जवाब नहीं
मेरा अंश जो स्वतंत्र है
उसी को छलते हो रोज़
पर नहीं भूलते मेरे दर पर दिया जलाना
क्या लगता है तुमको ?
तुम्हारे घर, परिवार, समाज की स्त्रियाँ
नहीं समझती तुमको -
जब तुम जज़्बातों का छल करते हो
और वो मोहब्बत के पकवान बनाती है
रिश्तों की मजबूती के लिए
जब राजनीति करते हो
तो वो खामोश सी झूठ को परखती है
और आंकलन कर आगे बढ़ जाती है
कूटनीति करते हो
तो धैर्यवान नारी, चतुराई से
हालातों की दिशा बदलती है
देखी को अनदेखी कर
तुम्हारी गर्द झाड
मसरूफ हो जाती है जिंदगी में
बस! अब और नहीं
क्योंकि इतिहास साक्षी है
जितनी भी बार तुमने
ललकारा है स्त्री के धैर्य को
उसके आत्मसम्मान को,
साहस को
लोगों ने सिर्फ खोया है
पाया कुछ नहीं
कहीं लंका ढही
तो कहीं कौरव वध
अब निर्णय तुम्हारा है ॥
हमेशा से कमजोर समझते आये हो मुझको
नवरात्रि में
दुर्गा सप्तशती का पाठ
करते देखा है मैंने
क्यों?
मेरे शक्तिस्वरूपा, तेजस्वी, ओजपूर्ण
रूप से डर गए क्या ?
ओह! तो स्वार्थी हो तुम
पूजते हो क्योंकि -
मुझ दैवीय स्वरुपा की नज़र तिरछी हुई तो
नुक्सान हो सकता है.
अच्छा ! तो बल से डरते हो
मन से छल करते हो
कितने दोगले हो तुम
कितनी बार भावनात्मक खेल खेला है तुमने
राजनीति भी कर लेते हो अक्सर
और तुम्हारी कूटनीति का तो जवाब नहीं
मेरा अंश जो स्वतंत्र है
उसी को छलते हो रोज़
पर नहीं भूलते मेरे दर पर दिया जलाना
क्या लगता है तुमको ?
तुम्हारे घर, परिवार, समाज की स्त्रियाँ
नहीं समझती तुमको -
जब तुम जज़्बातों का छल करते हो
और वो मोहब्बत के पकवान बनाती है
रिश्तों की मजबूती के लिए
जब राजनीति करते हो
तो वो खामोश सी झूठ को परखती है
और आंकलन कर आगे बढ़ जाती है
कूटनीति करते हो
तो धैर्यवान नारी, चतुराई से
हालातों की दिशा बदलती है
देखी को अनदेखी कर
तुम्हारी गर्द झाड
मसरूफ हो जाती है जिंदगी में
बस! अब और नहीं
क्योंकि इतिहास साक्षी है
जितनी भी बार तुमने
ललकारा है स्त्री के धैर्य को
उसके आत्मसम्मान को,
साहस को
लोगों ने सिर्फ खोया है
पाया कुछ नहीं
कहीं लंका ढही
तो कहीं कौरव वध
अब निर्णय तुम्हारा है ॥
" प्रिया चित्रांशी"
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