कविता अमूर्त से मूर्त का चेतन स्वरुप हैं। ये एक विचारक की संवेदना की उस पराकाष्ठा को चित्रित करती हैं जिस विचाररूपी महासागर में वो गोता लगाकर, उन भावो को जी कर, कभी कविता, कभी कहानी, कभी ग़ज़ल, तो कभी किसी और रूप में बाहर निकल, लोगो के बीच पहुँच, उनका अपना चरित्र बन, फलती-फूलती,चिरायु हो अनवरत जीती हैं ।
हरिबंस राय बच्चन जिनका नाम ही काफी हैं, मधुशाला उनकी हैं या वो मधुशाला के ....... दोनों एक - दुसरे के पूरक ही माने जाते हैं।
कविताओं में रूचि रखने वाला शायद ही बिरला कोई ऐसा होगा, जिसने "मधुशाला" का नाम नहीं सुना। जिसने पढ़ ली वो तो जैसे मधु रुपी गंगा में गोता लगा कर निहाल हो गया, जो कविता को पसंद करते हैं, उसका रस्सावदन करते हैं, उनके लिए कविता की अनुभूति ब्रह्म प्राप्ति से कम नहीं होती।
"मधुशाला" पर" मनोरंजन जी " ने एक परोडी बनाई हैं, जिसे तत्कालीन कवि सम्मेलनों में वो सुनाया भी करते थे। उसकी कुछ रुबाइया यहाँ उद्धृत करना चाहूगी।
" भूल गया तरबीह नमाजी,
पंडित भूल गया माला,
चला दौर जब पैमानों का,
मग्न हुआ पीने वाला,
आज नशीली से कविता ने,
सबको ही मदहोश किया,
कवि बनकर महफ़िल में आई,
चलती, फिरती मधुशाला।"
पंडित भूल गया माला,
चला दौर जब पैमानों का,
मग्न हुआ पीने वाला,
आज नशीली से कविता ने,
सबको ही मदहोश किया,
कवि बनकर महफ़िल में आई,
चलती, फिरती मधुशाला।"
बच्चन जी ने जब मधुशाला की रचना की, तब उनकी आयु करीब २७-२८ वर्ष की रही होगी, इस काव्य रचना ने प्रकाशित हो धूम मचा दी। विद्यालयों में उन दिनों कवि सम्मलेन हुआ करते थे, छात्रों ने तो इसका दोनों हाथ बढा स्वागत किया, परन्तु आलोचक भी थे। भारी आलोचना का सामना करना पड़ा था बच्चन जी को, अगर मैं गलती नहीं कर रही तो बच्चन जी से पहले किसी कवि ने इस विषय पर काव्य रचना की ही नहीं, परन्तु मधुशाला के बाद तो "मदिरा" जैसे काव्य रचना की विषय - वस्तु ही बन गई।
आखिरकार बच्चन जी की आलोचना होती क्यों नहीं, उन्होंने साहित्यिक परंपरा को तोड़ने का दुस्साहस जो किया था। एक ऐसे विषय को साहित्य में शामिल करने की चेष्टा कर दी, जिसके बारे में शब्द गढ़ना तत्कालीन साहित्यकारों के मस्तिष्क की उपज ही नहीं थी।
ये दुनिया ऐसी ही हैं, परिवर्तन सभी चाहते हैं, न परिवर्तन के लिए पहल करते हैं और न ही उसे जल्दी स्वीकारते हैं, अगर मैं अपने नज़रिए की बात करू तो मेरे हिसाब से मधुशाला में "मदिरा रुपी द्रव्य" का उल्लेख तो हैं ही नहीं।मेरे हिसाब से मधु अर्थात काव्य रूपी रस, और शाला पढने या सुनने वालो का समूह। स्वयं बच्चन जी ने इस बात को स्वीकार हैं, मधुशाला की निम्न पंक्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं।
भावुकता अंगूर लता से,
खींच कल्पना की हाला,
कवी साकी बनकर आया है,
भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण भर खाली होगा,
लाख पिए , दो लाख पिए,
पाठकगण है पीने वाले,
पुस्तक मेरी मधुशाला।
खींच कल्पना की हाला,
कवी साकी बनकर आया है,
भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण भर खाली होगा,
लाख पिए , दो लाख पिए,
पाठकगण है पीने वाले,
पुस्तक मेरी मधुशाला।
अब बताइए इस काव्यरुपी मधु का पान किया आपने या नहीं, कवि को कविता का नशा ही ऐसा होता हैं कि उसे किसी और नशे की आवयश्कता ही नहीं होती। संभवता बच्चनजी को जानने वाले जानते हैं कि उन्होंने कभी मदिरा का सेवन नहीं किया, अक्सर ये प्रश्न उनसे पूछा जाता कि आप मदिरा नहीं पीते तो आपको लिखने कि प्रेरणा कहा से मिली? इस पर बच्चन जी से कहा " नशे से इनकार नहीं करूंगा, कविता भी एक नशा हैं, कायस्थ कुल में जन्मा हूँ, जो पीने के लिए प्रसिद्ध हैं पर शराब को कभी हाथ नहीं लगाया।"
इस प्रश्न पर एक रुबाई पर के रूप में उनका उत्तर देखिये ........
मैं कायस्थ कुलोदभव,
मेरे पुरखो ने इतना ढाला,
मेरे तन के लोहू में हैं ,
पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे हैं,
मदिरालय के आँगन में ,
मेरे दादा, परदादा के हाथ,
बिकी थी मधुशाला ।
मेरे पुरखो ने इतना ढाला,
मेरे तन के लोहू में हैं ,
पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे हैं,
मदिरालय के आँगन में ,
मेरे दादा, परदादा के हाथ,
बिकी थी मधुशाला ।
मधुशाला के माध्यम से बच्चन जी ने सामाजिक विषमताओं का भी चित्रण किया हैं , जाति, धर्म में बटें इस समाज को अपनी कलम के धार से प्रहार कर जोड़ने की एक अनूठी कोशिश. .. देखिये इन पंक्तियों को .........
नाम अगर पूछे कोई तो,
कहना बस पीने वाला,
काम ढालना और ढलाना,
सबको मदिरा का प्याला,
जाति, प्रिये पूछे यदि कोई,
कह देना दीवानों की,
धर्म बताना प्यालों की ले ,
माला जपना मधुशाला ।
कहना बस पीने वाला,
काम ढालना और ढलाना,
सबको मदिरा का प्याला,
जाति, प्रिये पूछे यदि कोई,
कह देना दीवानों की,
धर्म बताना प्यालों की ले ,
माला जपना मधुशाला ।
मधुशाला वास्तव में जीवन दर्शन हैं, आप वही देखते हैं जो आप देखना चाहते हैं या फिर विचारों की सीमा- रेखा को तोड़ने कि सामर्थ्य सभी में नहीं होती ........बात सिर्फ नज़रियें की हैं।
मुसलमान और हिन्दू दो हैं,
एक मगर उनका प्याला,
एक मगर उनका मदिरालय,
एक मगर उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक,
मंदिर, मस्जिद में जाते ,
बैर बढ़ाते मंदिर, मस्जिद,
मेल कराती मधुशाला ।
एक मगर उनका प्याला,
एक मगर उनका मदिरालय,
एक मगर उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक,
मंदिर, मस्जिद में जाते ,
बैर बढ़ाते मंदिर, मस्जिद,
मेल कराती मधुशाला ।
उपरोक्त पंक्तियाँ कवि की धर्म निरपेक्ष सोच की ओर संकेत करती हैं और साम्प्रदायिकता की खिलाफत।
दरअसल कलम कवि का हथियार है, इसी के माध्यम से वो शब्द रचना करता हैं और नए शब्दों का सृजन भी।वो तो साधक हैं जो विचारो की तपस्या कर, उनका गूढ़ मंथन कर, भाषा पर नए प्रयोग कर, उसे परिमार्जित कर, आवश्यकतानुरूप भावो के ताने- बने में बुनकर ले आता हैं लोगो के सामने। कलम ने तो अपना काम दिखा दिया ..... अब आप खोजिये उसके भीतर के रहस्यों को।
15 comments:
MADHUSHAALA KE BAARE ME JITNI KAHI JAAYE KAM HAI YE APNE AAP ME EK SAHITYA HAI... MAGAR MADHUSHALAA KE BAARE EM AAPKI PRASTUTI BEHATAR HAI.. DHERO BADHAYEE
ARSH
बहुत ही सुन्दर पोस्ट रचना के साथ.
'Madhushala' meri bhi pasandida kriti hai. Acchi lagi yeh post. Badhai.
Chaliye is post ke madhyam se kuchh achchi paniyan Madhushala ki duhrane ko mil gayin.
apki prastuti bhi achchhi hai.
Navnit Nirav
वाक़ई बढ़िया पोस्ट लिखी है
मधुशाला को पृष्ठभूमि में रख एक बेहतरीन आलेख.
पैरोडी पहली बार पढ़ी. आभार इस उम्दा प्रस्तुति का.
बच्चन जी की मधुशाला तो पढ़ी थी पर आज उसके अलावा भी बहुत सी जानकारियाँ मिली ....जब भी परिवर्तन हुए हंगामें होते रहे ....पर सम्मान भी उन्हें ही मिला ......!!
आपने बहुत ही सधे हुए शब्दों से पोस्ट लिखी है ...बधाई ....!!
मधुशाला हो जहाँ , वहीँ डगमगाता है मन
इतराता यह सोचकर , पास है मेरे मधुशाला......
"गागर में सागर" सा यह आलेख मधुशाला की पंक्तियों के साथ-साथ आपके विचारों से सुन्दर बन पड़ा है. मधुशाला के सही मायनों का उदघाटन तथा बच्चन जी की संकल्पना प्रस्तुत करने के लिए आपका हार्दिक अभिनन्दन.
आज हुआ है ज्ञात हमें ये,
क्या है आखिर मधुशाला,
काव्य-मधु का पान जहां पर,
ठीक वहीं है मधुशाला.
साभार
हमसफ़र यादों का.......
Really a touching post. i have been a fan of bacchanji from childhood and always remember this lines from " Nisha Nimtarn"
"Saathi sath na dekha dukh bhi"
regards,
Bhoopesh
एक अलग अंदाज के साथ आपकी यह प्रस्तुति प्रशंसनीय है मेरी नजरों में।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
हरिवंशराय बच्चन जी आज अगर मधुशाला लिखते तो लाइनें कुछ ऐसी होतीं:-
..है प्यार की सौतन और दुश्मनो की लगती खाला
धन है, बल है फिर भी खाली है मन का प्याला
बैर सिखाती, कपट सिखाती सबकी वाट लगाती
हर दिन कड़वे घूंट पिलाती ऐसी है ये मधुशाला
कहिए कैसी रही....
bahut bahut achha lekh hai ye...itni samajhdaar sameeksha si kar dee is mahaan kavita kee
madhushala ke deewano me to mera bhi naam shaamil hai...ye kavita bachanji aur Manna dey ki awaaz me merre paas hai...saath me laptop pe ye poori kavita rakhee huyee hai jiske darshan hote rehte hai...gaake ya iski panktiyaan bolke bas mazaa aa jaata hai..aur haan,dil se main ye maanta hoon..ek mahaan rachna hai ye :)
व्याख्या सहित इसे पढ़ना अच्छा लगा
बहुत सुन्दर, सुगढ़ लेखन, बहुत सुन्दर कोट कि पंग्तियाँ ...
तो यकीन नहीं होता यह वही प्रिया है :)
(राष्ट्रीय साक्षरता मिशन वाले ऐड कि तर्ज़ पर)
Post a Comment