
कहते हैं कवि बनने की पहली शर्त इंसान होना हैं। कविता कवि के उन क्षणों के उपलब्धि होती हैं, जब वो अपने आप में नही होता। इसीलिए कवि के चेतनास्तर तक उठे बिना समझी भी नही जा सकती।
आज जिनके बारे में बात करने जा रही हूँ, उन्होंने देश में ही नही वरन विदेश में भी अपनी पहचान बनाई हैं। लोग सिर्फ़ उनको सुनते ही नही बल्कि उनका अनुसरण भी करते हैं। जी हाँ वो हैं हम सबके प्यारे डॉ० कुमार विश्वास :-)
डॉ0 कुमार विश्वास का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं हैं। युवा दिलों कि धड़कन कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी, वो बहुत बड़े फनकार हैं, जब अपनी कविताओ का पाठ करते हैं तो सीधे श्रोताओ कि नब्ज को टटोलते हुऐ रूह को छु लेते हैं।
उनकी सीधी , सरल भाषा कविता का मार्मिक व्याख्यान ही नहीं करती बल्कि गुदगुदाती टिप्पणियां लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट खींच देती हैं। शायद यही वजह है कि जहाँ एक तरफ आज का युवा कारपोरेट वर्ल्ड के उतार - चढाव से जूझ रहा हैं, ......... पाश्चात्य संस्कृति में रचा बसा, फिर भी हिंदी कविता को जीता हैं, सुनता हैं, सराहता हैं। आखिर कुछ तो बात हैं आज कि पीढी में .............. स्पष्ट हैं प्यार और भावना की भाषा कौन नहीं समझता। शायद यही वजह है कि डॉ0
विश्वास के जुदा अंदाज ने नई पीढी को अपनी तरफ आकर्षित किया हैं ।
कभी डॉ. विश्वास से मेरी मुलाकात होगी और उनसे मिलकर मेरे लेखन का शौक फिर से कुलांचे मारने लगेगा ..... ऐसा भी नहीं सोचा था कभी..
पर यही तो जिंदगी हैं ....हमेशा वो देती हैं जिसकी आपको उम्मीद न हो....... मेरी और उनकी मुलाकात का वाकया हैं बहुत दिलचस्प .....मेरे लिए तो वो एक अविस्मरणीय क्षण हैं .... सोचती हूँ क्यों न इस किस्से से आपको रूबरू करवाया जाये।
दरअसल डॉ0 कुमार विश्वास नाम के कोई कवि भी हैं, इसका ज्ञान करीब ढाई साल पहले ही हुआ। एक दिन परिवार के साथ टी० वी० पर कवि सम्मलेन देखा, उसमे डॉ० विश्वास को उनकी प्रसिद्ध रचना " कोई दीवाना कहता हैं '
सुनाते हुए देखा ..........कविता ने तो स्तब्ध करके रख दिया हैं ... याद हैं पापा कि वो टिपण्णी " ये शख्स बहुत आगे जायेगा,बिलकुल गोपाल दास नीरज जैसे हैं इसके तेवर " बस प्रोग्राम ख़त्म, बात
ख़त्म।
कविता के कुछ अंश दीमाग में फीड हो गए थे तो गुनगुना लेती थी कभी कभी।
अक्सर मेरे सहकर्मी पूछते ..... ये
क्या गुनगुनाती रहती हो ? मैं बस मुस्कुरा देती। एक दिन बताया अपनी सहेली की ...... उसने मजाक- मजाक में नेट सर्फिंग शुरू की और मुझे डॉ०
विश्वास का ई-
मेल आई ०
डी० सर्च
करके दे दिया।
बात शायद जुलाई या अगस्त २००८ कि हैं जब मेरी एक सहेली ने उनका ई -मेल आई ० डी ० दिया था मुझे। मैंने भी झट से इनविटेशन भेजा और उधर से स्वीकृति भी मिल गई ........मैंने अपना परिचय दिया .......पर उन्होंने ज्यादा बात ही नहीं की। मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा था कि उनके जैसा मसरूफ शख्स इन्टरनेट पर यूजर हो सकता हैं। मैंने उनसे काफी बात करने कि कोशिश की, पर उधर से किसी भी बात का ठीक जवाब ही नहीं आया, मैंने कहा कवि हैं तो दो - चार पंक्तिया अपनी कविता की ही लिख दे ताकि यकीन हो जाये कि आप वही हैं जिन्हें हम समझ रहे हैंI उन्होंने मेरे इस निवेदन को भी ठुकरा दिया ..... मैंने भी सोचा की कवि होकर कविता से परहेज .... यकीनन ये शख्स डॉ० विश्वास नहीं हो सकता .......ये ईमेल आई० डी० नकली हैं और कोई डॉ० साहेब का नाम इस्तेमाल करके लोगों को बेवकूफ बना रहा हैं। बस मैंने दो - चार उलटी - सीधी बातें लिख कर भेज दी । उधर से जवाब आया अगर नहीं यकीन हैं तो ब्लाक कर दीजिए । मैंने भी बिना देर लगाये तुंरत ब्लाक कर दिया.... बहुत गुस्सा आया खुद पर उस दिन कि कैसे कर बैठी इतनी बड़ी बेवकूफी।
जिंदगी अपनी रफ़्तार से चल रही थी । इस बात तो करीब चार माह बीत चुके थे । मेरे दिमाग से ये वाकया मिट
चुका था ..... एक दिन फुरसत के
क्षण,
मैं एक सोशल वेबसाइट विजिट कर रही थी .............अचानक नज़र डॉ
० कुमार विश्वास नाम के प्रोफाइल पर
नज़र गई,
तुंरत विजिट किया प्रोफाइल ........ आश्चर्य हुआ वो तो सचमुच में कवि डॉ0 कुमार विश्वास थे ....मैंने झट से ब्लाक आई० डी० को ओपन किया । दोपहर में प्रतिक्रिया भी आई उधर से .... मैंने याद दिलाया उनको अपने बारे में और पूर्व व्यवहार के लिए माफ़ी में मांगी।
एक बार पता चला कि किसी प्रोग्राम के सिलसिले में उन्हें लखनऊ आना हैं। सोचा आ रहे हैं तो क्यों न मुलाकात की जाये , बहुत खुश थी मैं, पर थोडा सा डर भी था अंदर........ इस तरह किसी से मिली जो नहीं थी कभी ........ मैंने अपनी इस दुविधा को ऋचा (मेरी सहेली ) से बताया। हमने डिसाइड किया कि हम दोनों साथ जायेगे उनसे मिलने।
अगले दिन सुबह पता चला कि उनका प्रोग्राम तो रात का था और दिन में ३ बजे शताब्दी से वापस दिल्ली जा रहे हैं। हम ऑफिस में थे तो छुट्टी के लिए कोई सॉलिड वजह होनी चाहिए। एच० आर० से मिलकर किसी तरह छुट्टी मिली। अब कवायत शुरू हुई कि कवि से मिलने जा रहे हैं, तो खाली हाथ तो नहीं जाना चाहिए। हम दोनों ने डिसाइड किया कि माँ सरस्वती के उपासक को क्यों न वीणावादिनी ही भेंट की जाये। बस झटपट गिफ्ट शॉप से माँ सरस्वती की प्रतिमा ली और चल पड़े स्टेशन कि ओर।
स्टेशन पर पहुचे तो शताब्दी प्लेटफोर्म पर खड़ी थी, ऋचा ने प्लेटफोर्म टिकेट लिया और फिर हमने रुख किया शताब्दी की ओर। हमने पता किया था कि एक्जीक्यूटिव क्लास में हैं उनका रिज़र्वेशन। निसंदेह इंटेलिजेंट तो मैं हूँ ही.............एक्जीक्यूटिव क्लास इंजन के पास होता हैं और हम चले गए विपरीत दिशा में. ...... बाई गौड.... पूरे दो चक्कर लगाये थे ट्रेन के ........ऊपर से ट्रेन बार - बार सीटी बजाकर ये बता रही थी कि स्टेशन से रुखसती का समय आ रहा हैं ...धड़कने बढ़ रही थी हमारी ...... कितना प्रयत्न किया था हम दोनों ने .... वो ऑफिस में बहाना बनाना..... .कम टाइम में गिफ्ट की शौपिंग ...... चिलचिलाती धूप में स्कूटी चलाकर वो स्टेशन पर पहुचना ......... ट्रेन की परिक्रमा और फिर मुलाकात न हो पाना ............. आखिरकार मिल ही गए कोच के बाहर खड़े हुए थे। थके- हारे हम दोनों बेचारे पहुँच गए.... डॉ0 विश्वास के सामने ......... बहुत खुश थे हम दोनों। सोचा तो था .....कि पूरा इंटरव्यू लेंगे ....कई सवाल थे जहन में पूछने के लिए .....पर शायद उनसे मिलने कि ख़ुशी इतनी ज्यादा थी कि दिमाग से सवाल छूमंतर हो गए। वक़्त भी कम था हमारे पास ........हमने जल्दी से गिफ्ट जो जल्दबाजी में ख़रीदा था, उनके हाथ में दे दिया, अपने सामने ही खोलने को बोला ..... माँ सरस्वती कि प्रतिमा को देख कर वो भी बहुत खुश थे बोले कि मैं इसे स्टडी में रखूंगा।
उनके लिए ये घटना कोई बड़ी बात नहीं हैं।
क्योकि उनके पास हमारे जैसे हजारों की भीड़ हैं। रोजाना कही न कही उनका शो रहता हैं .... और रोज़ कुछ न कुछ प्रशंसको का नाम उनके साथ जुड़ ही जाता हैं। कुछ पलों की मुलाकात से किसी के बारे में कुछ नहीं बताया जा सकता पर चूँकि आज के दौर के वो एक प्रसिद्ध कवि हैं और युवाओ में काफी लोकप्रिय भी।
जब कभी उनका कोई विडियो देखती तो सोचा करती थी .....
काश !
एक बार मुलाकात जो जाए तो क्या बात हो।
एक बात जिसने काफी प्रभावित किया वो ये की हमें उनसे मिलकर ऐसा लगा ही नहीं कि मैं " डॉ० कुमार विश्वास से मिल रही हूँ। बल्कि ऐसा लगा कि अपने किसी रिश्तेदार को स्टेशन पर सी- ऑफ करने आये हैं। डॉ० कुमार विश्वास हमसे मिलकर प्रसन्न हुए या नही , ये तो नही जानती पर . . हमारे लिए तो कुछ ऐसा था जैसे " चाँद कि जिद करने वाले बच्चे को सच-मुच चंदा मामा ही हाथ लग गए हो"
डॉ० साहेब से मुलाकात का ये अच्छा अनुभव रहा ...... जिंदगी में कुछ न कुछ बदलता रहना चाहिए वरना जीवन कि गति ही रुक जाती हैं ........रुकी हुई जिंदगी सुस्त और नीरस हो जाती हैं ........ अब मुझे इंतज़ार हैं .... जिंदगी कि एक नई खोज का ....एक और रुचिकर अनुभव का ............शायद अगली मुलाकात फिर किसी ख़ास शख्सियत से हो ......
इस छोटी से मुलाकात ने मेरे जीवन को नई दिशा दी. मेरी कलम जिसने शायद चलना ही छोड़ दिया था ... उसे गतिमान बना दिया डॉ० विश्वास ने। ऐसे प्रेरक व्यक्तित्व के प्रति ह्रदय में आदर के भाव क्यों न हो...........
विश्वास सर और उनकी कविताओं से प्रभावित होकर.......हमने भी शब्दों से खेलने की कोशिश की! इसलिए मेरी ये रचना उन्ही को समर्पित हैं .........
माँ भारती के अनन्य उपासक,
भगवती सरस्वती को काव्यांजलि अर्पित करने वाले,
आपके व्यक्तित्व से तो जग हिला हैं,
कवियों में होता न कोई छोटा, न बड़ा हैं.
नहीं चाहती कि तारीफ में कुछ शब्द कहूं मैं,
क्यों आदि युग के कवियों कि राह चलू मैं ,
आप कोई राजा या नेता नहीं हैं,
सत्ता के शिखर पर आप बैठे नहीं हैं
मुझे आपसे कोई भौतिक लालच नहीं हैं,
लेन-देन का अपना कोई रिश्ता नहीं हैं,
हम दोनों अनजान एक - दूजे से हैं,
हाल ही में जाना कि आप पारस से हैं
बस एक बार आपकी एक कविता यू ही हाथ लग गई,
हाथ क्या लगी, वो तो जैसे रोम - रोम में बस गयी,
तभी एक नए रिश्ते का सर्जन हुआ था
कवि और पाठक का नामकरण हुआ था
आप लिखते गए मैं पढ़ती गई, सुनती गई,
भूरि- भूरि प्रशंसा करती गई ,
नहीं चाहा प्रशंसा आप पर जाहिर करू मैं,
क्यों बेवजह कविता लिखूं - तारीफ करुँ मैं,
पर आपकी नज्मों और अंदाज़ - ए - बयां ने बजबूर किया हैं,
वरना हमने भी कभी वक़्त जाया नहीं किया हैं,
क्यों लिखा और सुनाया ऐसा कि रूह तक मचल गयी,
कलम थिरक गई , और मेरी लेखनी कविता में ढल गई ।
विश्वास करो मेरा , इसमें कुसूर मेरा नहीं हैं,
ये कलम निर्भय , स्वच्छंद तहरीर पर अड़ी हैं,
कुछ पलों की मुलाकात पर इसने दास्ताँ गढ़ी हैं ,
और मैं मजबूर बहुत बस इसके हुक्म पर चली हूँ ।
कुछ कम - ज्यादा होगा, तो दोष मेरा न होगा ,
मान - सम्मान का इल्जाम मुझ पर न होगा,
मैं तो बस साधन मात्र हूँ,
इसकी स्थिरता को गतिमान बनाने का पुण्य आप पर होगा।
आपके लेखन को किसी कि नज़र न लगे ,
आपको हिंदी साहित्य में नया शिखर मिले,
अंग्रजी के जाल में भटके हुओ को हिंदी साहित्य से वापस लाना,
ऐसा चुम्बकत्व तो किसी नारी के सौन्दर्य में न होगा।
कही मेरी इन बातों से गौरान्वित तो नहीं महसूस करोगे,
डरती हूँ, कही गुरूर कि सीढ़ी तो नहीं चढोगे,
गर ऐसे ही सादगी, सहजता, सहृदयता से चलते रहोगे,
देते हैं दुआ आज आपको, तूफानों को चीर कर आगे बढोगे।
इस लेख पर आप सभी की प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेग।