दिल दुखता है जब सुनते हैं कि मोहब्बत करने के जुर्म पर किसी लड़के को या लड़की को या फिर प्रेमी- युगल को परिवार या फिर सामाजिक ठेकेदारों द्वारा सजा सुना दी जाती है. क्या हक बनता हैं उनका किसी क़ी जिंदगी के बारे में फैसला करने का? और खासकर तब जब पैरंट्स अपनी झूठी मान और शान के लिए अपने बच्चो को ही मारने से नहीं कतराते. (मीडिया ने नाम दिया हैं ऑनर किल्लिंग, आई ऑब्जेक्ट दिस टर्म - इनकी तो आदत ही हैं कांसेप्ट और शब्द चोरी की) क्या जान लेकर पितृ-ऋण चुकाया जाता है? हमको ज्ञान नहीं है परम्पराओं का, रीति-रिवाजो का, गोत्र, धर्म या क्षेत्र क़ी मान्यताओ का और हम जानना और समझना भी नहीं चाहते ....जों चीज़े हमें इंसानों में फर्क करना सिखाती हैं .....दोहरे मापदंड सिखाती हैं उनसे हम दूर ही अच्छे. कम से कम शान से इतना तो कह सकते हैं कि इंसान बनने कि कवायत नहीं कर रहे ....हम इंसान ही हैं ...शुद्ध, शरीर से भी और आत्मा से भी.
हम सामाजिक सोच को तो नहीं बदल सकते......लेकिन अपनी रचना के किरदारों का भाग्य तो लिख सकते हैं. कहते हैं कि प्यार त्याग मांगता है तो यही सही.... हमारे किरदार मोहब्बत को अपनाते हैं और त्याग से पीछे नहीं हटते.....जीवन खूबसूरत है ......ये हो सकता है हल शायद.......
तू मेरी धरती का पौधा नहीं
मै तेरी बस्ती की बेटी नहीं
तेरा देवता अलग
मेरा पूजन जुदा
जब खुदा है अलग
तो दिल कैसे मिला ?
तूने अपने जज्बे को कुचला
मैं जानती हूँ ,
मैंने अपने भावो को दफनाया
मानती हूँ ,
बच गए हम दोनो वरना
बेमौत मारे जाते ,
इन रस्मो- रिवाजो से बगावत
करते तो कहाँ जाते ?
अब जी कर एक अनूठा
अनुबंध करते हैं,
तुम अपने सीने में
मेरा बुत रखना ,
सजदा किया करना
मै सुबह शाम तेरे नाम से
दीपक जलाऊँगी ,
उसी लौ से मांग सजाऊँगी .
मेरा पूजन जुदा
जब खुदा है अलग
तो दिल कैसे मिला ?
तूने अपने जज्बे को कुचला
मैं जानती हूँ ,
मैंने अपने भावो को दफनाया
मानती हूँ ,
बच गए हम दोनो वरना
बेमौत मारे जाते ,
इन रस्मो- रिवाजो से बगावत
करते तो कहाँ जाते ?
अब जी कर एक अनूठा
अनुबंध करते हैं,
तुम अपने सीने में
मेरा बुत रखना ,
सजदा किया करना
मै सुबह शाम तेरे नाम से
दीपक जलाऊँगी ,
उसी लौ से मांग सजाऊँगी .
रोके! आके हमें कोई
जुदा कर भी वो हमें जुदा ना कर पायेंगे
मन के बंधन तो अब और मजबूत हो जायेंगे.
बस तुम्हारे घर पालकी ना उतरेगी
अनाज से भरे कलश पर ठोकर ना पड़ेगी
मुख्य द्वार पर आलते के छापे ना होंगे
वो गहने जों बचपन से माँ ने बनाये हैं
अब ना सजायेंगे मेरे तन को
सुर्ख जोड़ा पहन सोलह श्रृंगार ना कर पाऊँ
मेरे घर द्वारचार ना होगा
विदाई ना होगी मेरे बाबुल के घर से
28 comments:
बहुत खूबसूरती से अपने मन के भाव पहुंचाए हैं इस समाज को.....सुन्दर प्रस्तुति...
मन को छूती तेजस्वी अभिव्यक्ति -सचमुच बहुत अच्छी कविता -प्रभावी ,सुघड़ !
आपकी बात सही है पर तस्वीर का दूसरा रुख भी है
मेरी नयी पोस्ट पढ़ें
खबर से पहले की खबर ((( लघु कथा )))
http://my2010ideas.blogspot.com/2010/06/blog-post.html
सादर!
बेहद सुन्दर रचना |
रत्नेश
किसी की हत्या किसी भी रूप में की गई हो, कब से सम्मान की पात्र हो गयी, यह तो मैंने अखबारों से जाना। मैं विगत तीन दशक से पत्रकारिता में हूं और हत्या को सिर्फ हत्या ही लिखा है, सम्मानजनक और असम्मानजनक नहीं। आॅनर किलर लिखकर मुझे लगता है कि कहीं न कहीं दोषियों की तरफदारी की जा रही है। इस पर आपकी लिखी कविता ने मेरा मन छू लिया है। मेरी एक बेटी है लगभग दस वर्ष की। इस कविता में मैं उसका अक्स देखता हूं। ईश्वर ना करे कभी मेरी बिटिया को इस कविता से गुजर कर जाना पड़े। एक बार फिर आपको मेरी तरफ से धन्यवाद।
मनोज कुमार
स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता
किसी की हत्या किसी भी रूप में की गई हो, कब से सम्मान की पात्र हो गयी, यह तो मैंने अखबारों से जाना। मैं विगत तीन दशक से पत्रकारिता में हूं और हत्या को सिर्फ हत्या ही लिखा है, सम्मानजनक और असम्मानजनक नहीं। आॅनर किलर लिखकर मुझे लगता है कि कहीं न कहीं दोषियों की तरफदारी की जा रही है। इस पर आपकी लिखी कविता ने मेरा मन छू लिया है। मेरी एक बेटी है लगभग दस वर्ष की। इस कविता में मैं उसका अक्स देखता हूं। ईश्वर ना करे कभी मेरी बिटिया को इस कविता से गुजर कर जाना पड़े। एक बार फिर आपको मेरी तरफ से धन्यवाद।
मनोज कुमार
स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता
एक नारी के हृदय से एक खोखली परम्परा का विद्रोह है आपकी पंक्तियाँ...हालाँकि आपने इस पोस्टको लेबेल दिया है विरोध… यह विरोध नहीं, विद्रोह है!! एक सकारात्मक विद्रोह...
लाजवाब अभिव्यक्ति ... प्यार तो किसी भी त्राह से जुर्म नही हो सकता ... जिसके दिल में प्यार बस्ता है ऊपर वाला वहें रहता है ... जाने कब समझेंगे ये लोग ....
bilkul tik...isse adhik aur kya kaha jae..... khi suna hai maine.
Radhakrishna ki murti hr ghar me dekhi jati hai..
do premio ke milne pe fansi de dee jati hai..
pata nahi ye tyaag parampra apne hi desh me kyooon joro par hai :(...bahut bahut acchi lagi ye past ....:)
वाह प्रिय क्या खूब लिखा है इसको पढ़कर मुझे मेरी एक पुरानी पोस्ट याद आ गई "प्रपंच"
"प्रपंच"
दर्द की दीवार हैं,
सुधियों के रौशनदान.
वेदना के द्वार पर,
सिसकी के बंदनवार.
स्मृतियों के स्वस्तिक रचे हैं.
अश्रु के गणेश.
आज मेरे गेह आना,
इक प्रसंग है विशेष.
द्वेष के मलिन टाट पर,
दंभ की पंगत सजेगी.
अहम् के हवन कुन्ड में,
आशा की आहुति जलेगी.
दूर बैठ तुम सब यहाँ
गाना अमंगल गीत,
यातना और टीस की,
जब होगी यहाँ पर प्रीत.
पोर पोर पुरवाई पहुंचाएगी पीर.
होंगे बलिदान यहाँ इक राँझा औ हीर.
खाप पंचायत बदलेगी,
आज दो माँओं की तकदीर.
मर्मस्पर्शी रचना जो कही न कही मन मे आक्रोश भी भर देती है...
Priya,
You have raised this sensitive topic so beautifully that no one else could have ever done. I am really at a loss of words to praise this one from you!
Truly Genereous, Great and Glorified composition from your magical pen.
Thanks for sharing this.
disabled candidates ke liye aajkal differentially abled term use kiya ja raha hai...main is baat se sehmat hoon ki kis baat ke liye kis shabd ka prayog ho raha hai uski apni ek ahamiyat hai....aur aapki baat sahi hai ki yahan par parivartan k zaroorat hai...is behad niraashajank kriyaa ko "honour" shabd se nahi jod sakte
प्यार त्याग मांगता है पर कब तक आख़िर ??? अपनों से बगावत नहीं कर सकते आप सच है... ये हमारे संस्कार हैं... पर इस प्यार को अपना लेने पर सिर्फ़ अपनी झूठी प्रतिष्ठा और दोगले, स्वार्थी समाज के लिये किसी की यूँ निर्ममता से हत्या कर देना ये कहाँ का न्याय है... ऐसे संस्कार तो कोई भी धर्म नहीं देता... फिर क्यूँ ऐसे दोगले समाज के लिये हमेशा प्यार ही त्याग करे... इस तरह मौन आहुति देकर दुनिया की नज़रों में महान बनकर किसे क्या साबित कर सकते हैं हम... क्या वाकई ऋण मुक्त हो सकते हैं हम... और इसपर भी क्या कोई समझेगा... परित्याग कर के विरोध जताने का ये क्या तरीका है... Sorry... but I object both...
हाँ प्रेज़ेन्टेशन और अभिव्यक्ति बहुत अच्छी है... उसमे कोई if.. but.. नहीं :)
@ Richa यहाँ विरोध ऐसी हत्याओ की लिए मीडिया द्वारा इस्तेमाल शब्द ऑनर किल्लिंग और रूढ़वादी रस्मो और परम्पराओं से हैं
जो मारते हैं झूठे सम्मान के नाम पर वो सगे ही होते हैं , पराये नहीं .........बात त्याग की नहीं हैं ना ही ऋणमुक्ति की .......बात है उस परम्परा और सामाजिक विचारधारा की जहाँ सिर्फ शारीरक प्रताड़ना नहीं दी जाती बल्कि मानसिक क्रूरता भी की जाती है ....क्यों गोत्र, जाति या धर्म के नाम पर उस व्यक्ति को अपनाया जाए जिससे आपका मन नहीं मिलता .....ऐसे तो चार लोगों की जिंदगी नरक बन जायेगी .........विवाह जैसी संस्था के नाम पर इच्क्षा के विपरीत लड़के - लड़की को बलिदान करना भी ज्यादती नहीं है क्या ? फिर समाधान क्या होगा?....बेहतर होता अगर तुम समाधान भी बताती.
@ priya हमने भी तो यही कहा... विरोध हमारा भी इन्ही रुढ़िवादी परम्पराओं, रस्मों और दोगले समाज से है जो सो कॉल्ड "ऑनर" के नाम पे लोगों की हत्या करने से भी नहीं हिचकिचाते... हाँ बस इस विरोध में हमारा एक विरोध आज के उन युवाओं से भी है जो चुपचाप सब सह लेते हैं और मौन आहुति दे देते हैं अपने प्यार की जैसा की तुमने कहा ये एक हल हो सकता है कुल का सम्मान बचाने का, अपने जन्मदाता को ख़ुश रखने का और ऋणमुक्त होने का... तुमने पूछा - क्यों गोत्र, जाति या धर्म के नाम पर उस व्यक्ति को अपनाया जाए जिससे आपका मन नहीं मिलता .....ऐसे तो चार लोगों की जिंदगी नरक बन जायेगी... बिलकुल सही है... हमने भी नहीं कहा की अपना लो... विवाह जैसी संस्था के नाम पर इक्षा के विपरीत लड़के - लड़की को बलिदान करना भी सरासर ज़्यादती है... पर तुम्हें क्या लगता है ये मौन त्याग करने से ये रुढ़िवादी समाज मान जाएगा ? क्या उस लड़के या लड़की का तब ज़बरदस्ती विवाह कहीं और नहीं करा जाएगा ? क्या तब वो ज़िन्दिगियाँ नरक बनने से बच जायेंगी ? हमें तो नहीं लगता... जहाँ तक समाधान की बात है एक हमारी या तुम्हारी सोच से समाज नहीं बदलेगा... बरसों से चली आ रही परम्परायें यूँ पलों में नहीं बदली जा सकती... वैसे पहले के मुकाबले कुछ बदलाव तो आया है सोच में ये तो तुम भी मानोगी... थोड़ा समय देना होगा... समाज में और जागरूकता लानी होगी... एकजुट होके विरोध करना होगा... और ज़रुरत पड़ी तो शायद विद्रोह भी... कठिन है पर नामुमकिन नहीं... ये समाज भी बदलेगा एक दिन अगर हम बदलना चाहें तो...
...बहुत मिठास है !!!
SUNDAR RACHNA
ऑनर किलिंग शायद ऑनर के लिए किलिंग , कोई पूछे इनसे कि जिस ऑनर के लिए हत्या की क्या वही ऑनर इनके पास खून करने के बाद भी बच रहता है ...और चौराहे पर जो नीलामी होती है इज्जत की ...दूर तक नन्हीं जानों की आवाजें क्या पीछा नहीं करतीं ...
आपकी कविता क्या कहने , मै तेरी बस्ती की बेटी नहीं ...शायद किसी बाप के सीने में तूफ़ान उठे ...
pata nahi kitne masle aankhon samne ghum gaye...nba jaane kitni khabron ko kavita ka roop de diya hai aapne... zabardast presentation ..par kavita ka kathya is kavita se jyada mahtvapurn hai ...
i too
Jitni bhi tareef ki jaye...kam hogi .
Beautiful creation !
ati sunder har ek rachna aapki alag trah hi hoti hai ...bahut sunder likha hai aapne
@ ऋचा ...ये तरीका बुरा है इसमें तो हम एकमत हैं बदलाव तो हम सभी चाहते हैं......चलो हम हमख्याल नहीं हमसफ़र ही सही......सैकड़ो साल लग जाए शायद स्वस्थ समाज बनाने में ...हमने हमारी रचना के किरदारों से त्याग करा दिया ...निर्माता , निर्देशक हम ...सो कुछ भी कर सकते हैं :-) तुम चाहो तो इसी सब्जेक्ट को अपने अनुसार निर्देशित कर सकती हो :-)
बहुत गजब की कविता लिखी है प्रिया आपने.. बहुत सुन्दर पंक्तियाँ है.. 'अब जीकर एक अनूठा अनुबंध करते है........ उसी लौ से मांग सजाऊँगी' - अत्यंत खुबसूरत.
कृपया मेरे ब्लॉग को भी पढ़ें .
sahi baat kahi aapne, andar tak kuchh dol gaya
ऐसी कवितायें ना लिखा करें..मन को चोट पहुंचती है और मन उद्दवेलित हो जाता है..
क्या करें... कुछ हैं जंगली लोग जो आज भी जंगल का राज चलाना चाहते हैं!!
पीड़ा हुयी इसे पढ़कर... जब मेरा खुदा अलग तो दिल कैसे मिला!
सुन्दर!!
जयंत
मैं एक बात पूछना चाहता हुईं की जो आजकल की औलाद कर रही है वो ठीक है क्या,
पूरी उम्र जिस माँ - बाप ने अपनी इच्छाएं को दबाकर जो अपने बच्चो को पालपोसकर बड़ा करते है , वही औलाद सिर्फ के अपने स्वार्थ के लिए अपने सभी रिश्ते भूल २ दिन के प्यार में पड़कर भुलादेते है !
उनको बुरा खाने वाला कोई नही है यहाँ पर न ही मीडिया में
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