Wednesday, April 7, 2010

सोचो ! जो हम परिंदे हो जाए







कभी - कभी यूँ ही
उठ जाते हैं दिल में
मासूम ख्याल
तुम्हारे साथ।



उड़ना चाहती हूँ
परिंदों जैसे।


सोचो !
जो हम परिंदे हो जाए।


किसी इलेक्ट्रिक वायर पर
बैठ चूँ-चूँ करें।


किसी टेलेफ़ोन टॉवर
पर बसेरा हो अपना।


घरो के सामने
बहती नाली पर
दोनों मिलकर पानी पिए।



फिर मैं फुर्र से उड़ जाऊं
तुम चीं चीं करते
ढूढने आओ मुझे




पूरा कुनबा मिलकर
पड़ोस वाले अरोड़ा साब
की छत पर फैले अनाज की
दावत उड़ाए।



किसी के आमद की आहट से
सारे एक साथ उड़ जाएँ।



जब तुम कैटरपिलर पर
मुहं साफ़ करो
तो मैं रूठ जाऊं
क्योंकि
मुझे नोन-वेज पसंद नहीं।




फिर तुम नन्हे से ...
गड्ढे में भरे
चुल्लू भर पानी में
गोता लगा, कसरत दिखा
मनाओ मुझे।



मैं तुमसे अलग
कुछ दूर फुद्कूं
पर
जल्द मान जाऊं।




रात में मेहनत के तिनको
से बने
बिन दरवाजे के घोसले पे
बेफिक्र तेरे सहारे सो जाऊं।



ज्यादा तमन्नाए कहाँ है मेरी
छोटी -छोटी चाहते
और संघर्ष में तुम्हारा साथ
क्या ऐसा ख्याल भी है
भौतिकवाद ?



36 comments:

दिलीप said...

Bahut Khoobsoorat chitran kiya...

http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

M VERMA said...

क्या ऐसा खयाल भी है
भौतिकवाद?
जी नहीं यह खूबसूरत खयाल प्रकृतिवाद है.
बहुत सुन्दर अभिलाषा,

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया रचना!

Vandana Singh said...

thts the most most most beautiful creation ..i jus lov it :) or kunbe ki daavat :-) aweeeesommmm !

Unknown said...

aacchhi bunaavat kavita ki........

संजय भास्‍कर said...

ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .

रश्मि प्रभा... said...

ek khoobsurat sa sapna ...... ek need waakai khwaabon bhara

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

priya ji...
kaash aapke jaisi soch aur kalaa mujhe bhi praapt hojaaye...
kaabile tareef hai aapka har ek lafz..

bahut hee sundar.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत कल्पना.....

डॉ. जेन्नी शबनम said...

bahut khoobsurat khayal hain. kaash ki aisa ho hum parinda ban jaye.
bhautikwaad nahin bas prem-may jiwan ka pyara sa khayal hai,
sukhad jiwan ki chaah mein man mein palta ek khwaab hai.
bahut shubhkaamnayen.

richa said...

मासूम, निश्छल परिंदों के मन की मासूम भावनाएँ... भौतिकवाद से कोसों दूर... काश कि हम उन जैसे बन पाते...

●๋• नीर ஐ said...

Bahut khoob. Padhkar bahut accha laga. :)

हरकीरत ' हीर' said...

बेहद अंतर्मन से लिखी रचना .....!!

सरल, निश्छल ,साफ़ , मासूम सी प्यारी रचना ....!!

दिगम्बर नासवा said...

मन को खींच कर बच्चा बना दिया आपने ... पर क्या ये होना संभव है ...

डिम्पल मल्होत्रा said...

bas etna sa khwaab hai....

सम्वेदना के स्वर said...

कब खो डाला इस छोटी सी चिड़ीया को हमने
बचपन में जब माँ सूप में चावल फटकती थी
ये आकर सामने बैठ जाती
हम तो भात खाते थे पकने के बाद
वो अपना हिस्सा पहले ही लेकर चली जाती थी.
दादा-दादी की फोटो के पीछे
बनाया था उसने अपना घर
हम इम्तिहान देने जाते समय
दादा-दादी को प्रणाम करते
और वो हमें आशीर्वाद देती
माँ बताती थी कि वो उम्र में बड़ी थी मुझसे.
प्रिया बहन, आज आपने मिला दिया उस चिड़ीया से
और मुझे खुद से …धन्यवाद!!

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji said...

एक बेहतरीन रचना.
पर आजकल कि गर्मी देखी है, गौरैया विलुप्त होने कीकगार पर आ चुकी हैं. :)

रचना दीक्षित said...

बहुत ही खुबसूरत ख्याल है, बहुत गहरी सोच कुछ नहीं कर सकते तो चलो इस खुबसूरत से ख्याल में खो जाते हैं
आभार

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

कल्पनाओं और सरल शब्दों का एक बेहतरीन और खूबसूरत कोलाज----।

Dimple said...

Hello ji,

It is really very nicely written.
Brilliant imagination and fantastic sketch of the entire scene!

I loved it :)

Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com

अलीम आज़मी said...

waaah priya ji gazab likhti hai aap ...aapke tareef ke liye alfaaz kam hai mere pass

देवेन्द्र पाण्डेय said...

चिड़ा-चिड़िया की चूँ-चूँ..
उनका संघर्ष...
उनका चैन.. उनकी मस्ती
सचमुच ह्रदय पुलकित करने के लिए पर्याप्त है.
मासूम बिंब के सहारे अभिव्यक्त इस परिपक्व अभिव्यक्ति की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है।
कविता का अंत तो बेहद शानदार है।
--बधाई।

अरुणेश मिश्र said...

प्रशंसनीय ।

Amitraghat said...

सुन्दर रचना...."

Manish Kumar said...

आपकी पिछली रचनाओं से काफी अलग, काफी भोली और दिल को छू ने वाली कविता लगी ये। छोटे छोटे सुखों को महसूस कर उन्हें जी भर जीने की कला सबको आ जाती तो ये संसार कितना सुखमय हो जाता।

स्वप्निल तिवारी said...

bahut pyaari si rachna hai

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

सुन्दर कल्पना और खूबसूरत अभिव्यक्ति में सराबोर बेहतरीन रचना......

सहज समाधि आश्रम said...

इंसान से पक्षी होने की कल्पना धन्य है
आपने जड भरत की काहानी सुनी है जो
हिरन के बच्चे से प्रेम होने के कारण
उसी योनि में जन्में थे शायद आप मनुश्य
शरीर की अहमियत नहीं जानती देवता भी जिसको
पाना चाहते हैं ऐसे ही ख्यालों में मनुष्य अपना
कीमती जीवन खो देता है
रात गंवाई सोय के दिवस गंवाया खाय
हीरा जन्म अमोल था कौङी बदले जाय

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

Bahut sundar ... !

संजय भास्‍कर said...

एक बेहतरीन रचना.

Shri"helping nature" said...

nice.......................
ek mithe bhav ki mahk

kunwarji's said...

एक बेहतरीन रचना.

Satya Vyas said...

आमेन .............
पेर अरोडा साहब पर् ज़ुल्म क्युँ..............

सत्य

स्वाति said...

बढ़िया रचना!

सुमन कुमार said...

उड़ने की कोशिश में,
नाकामयाव......
उसकी पंखो को,
कुतर दी गई है,
बंदिस रूपी खंजर से.
चाहती थी वह,
उड़ना.....
अनंत तक
चहकना.....
अरमानो के मुडेर पर,
फुदकना.....
दिल की आँगन में.
स्वर्ण पिंजरा को छोड़कर,
उड़ने के लिए
खुले आकाश में.
चाहत की दरवाजे को,
पार कर जाना चाहती थी,
वह तितली.

सुमन कुमार said...

मैं डरता हूँ,
कविता से....
शायद रूठ न जाए,
मेरी कोई हरकतों से.
अब तो इस डर ने,
डरने की सीमा पार कर गई है.
रात भर जागा रहता हूँ
ऐसा न हो की,
कविता...
रूठ कर चली जाए,
हमारे सोने के बाद.
कभी पलक झपकती भी
तो पुकारता हूँ,
कविता-कविता......
कई बार तो पूछ बैठा हूँ,
अपनी माँ से,
चली तो नहीं गई
कविता...?
कविता की डर ने
जुदा कर दिया हमें...
गीता से रामायण को
अब हाथ भी नहीं लगाता,
शायद..
नहीं चाहती कविता
बातें करूँ मैं,
किसी और से.
या फिर,
मेरी मुलाक़ात हो,
किसी और के साथ.
वह तो चाहती है
अपना बनाना
मुझे......
सिर्फ अपनाना,
कविता का सागर.