कभी - कभी यूँ ही
उठ जाते हैं दिल में
मासूम ख्याल
तुम्हारे साथ।
उड़ना चाहती हूँ
परिंदों जैसे।
सोचो !
जो हम परिंदे हो जाए।
किसी इलेक्ट्रिक वायर पर
बैठ चूँ-चूँ करें।
किसी टेलेफ़ोन टॉवर
पर बसेरा हो अपना।
घरो के सामने
बहती नाली पर
दोनों मिलकर पानी पिए।
फिर मैं फुर्र से उड़ जाऊं
तुम चीं चीं करते
ढूढने आओ मुझे ।
पूरा कुनबा मिलकर
पड़ोस वाले अरोड़ा साब
की छत पर फैले अनाज की
दावत उड़ाए।
किसी के आमद की आहट से
सारे एक साथ उड़ जाएँ।
जब तुम कैटरपिलर पर
मुहं साफ़ करो
तो मैं रूठ जाऊं
क्योंकि
मुझे नोन-वेज पसंद नहीं।
फिर तुम नन्हे से ...
गड्ढे में भरे
चुल्लू भर पानी में
गोता लगा, कसरत दिखा
मनाओ मुझे।
मैं तुमसे अलग
कुछ दूर फुद्कूं
पर
जल्द मान जाऊं।
रात में मेहनत के तिनको
से बने
बिन दरवाजे के घोसले पे
बेफिक्र तेरे सहारे सो जाऊं।
ज्यादा तमन्नाए कहाँ है मेरी
छोटी -छोटी चाहते
और संघर्ष में तुम्हारा साथ
क्या ऐसा ख्याल भी है
भौतिकवाद ?
36 comments:
Bahut Khoobsoorat chitran kiya...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
क्या ऐसा खयाल भी है
भौतिकवाद?
जी नहीं यह खूबसूरत खयाल प्रकृतिवाद है.
बहुत सुन्दर अभिलाषा,
बहुत बढ़िया रचना!
thts the most most most beautiful creation ..i jus lov it :) or kunbe ki daavat :-) aweeeesommmm !
aacchhi bunaavat kavita ki........
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .
ek khoobsurat sa sapna ...... ek need waakai khwaabon bhara
priya ji...
kaash aapke jaisi soch aur kalaa mujhe bhi praapt hojaaye...
kaabile tareef hai aapka har ek lafz..
bahut hee sundar.
बहुत खूबसूरत कल्पना.....
bahut khoobsurat khayal hain. kaash ki aisa ho hum parinda ban jaye.
bhautikwaad nahin bas prem-may jiwan ka pyara sa khayal hai,
sukhad jiwan ki chaah mein man mein palta ek khwaab hai.
bahut shubhkaamnayen.
मासूम, निश्छल परिंदों के मन की मासूम भावनाएँ... भौतिकवाद से कोसों दूर... काश कि हम उन जैसे बन पाते...
Bahut khoob. Padhkar bahut accha laga. :)
बेहद अंतर्मन से लिखी रचना .....!!
सरल, निश्छल ,साफ़ , मासूम सी प्यारी रचना ....!!
मन को खींच कर बच्चा बना दिया आपने ... पर क्या ये होना संभव है ...
bas etna sa khwaab hai....
कब खो डाला इस छोटी सी चिड़ीया को हमने
बचपन में जब माँ सूप में चावल फटकती थी
ये आकर सामने बैठ जाती
हम तो भात खाते थे पकने के बाद
वो अपना हिस्सा पहले ही लेकर चली जाती थी.
दादा-दादी की फोटो के पीछे
बनाया था उसने अपना घर
हम इम्तिहान देने जाते समय
दादा-दादी को प्रणाम करते
और वो हमें आशीर्वाद देती
माँ बताती थी कि वो उम्र में बड़ी थी मुझसे.
प्रिया बहन, आज आपने मिला दिया उस चिड़ीया से
और मुझे खुद से …धन्यवाद!!
एक बेहतरीन रचना.
पर आजकल कि गर्मी देखी है, गौरैया विलुप्त होने कीकगार पर आ चुकी हैं. :)
बहुत ही खुबसूरत ख्याल है, बहुत गहरी सोच कुछ नहीं कर सकते तो चलो इस खुबसूरत से ख्याल में खो जाते हैं
आभार
कल्पनाओं और सरल शब्दों का एक बेहतरीन और खूबसूरत कोलाज----।
Hello ji,
It is really very nicely written.
Brilliant imagination and fantastic sketch of the entire scene!
I loved it :)
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
waaah priya ji gazab likhti hai aap ...aapke tareef ke liye alfaaz kam hai mere pass
चिड़ा-चिड़िया की चूँ-चूँ..
उनका संघर्ष...
उनका चैन.. उनकी मस्ती
सचमुच ह्रदय पुलकित करने के लिए पर्याप्त है.
मासूम बिंब के सहारे अभिव्यक्त इस परिपक्व अभिव्यक्ति की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है।
कविता का अंत तो बेहद शानदार है।
--बधाई।
प्रशंसनीय ।
सुन्दर रचना...."
आपकी पिछली रचनाओं से काफी अलग, काफी भोली और दिल को छू ने वाली कविता लगी ये। छोटे छोटे सुखों को महसूस कर उन्हें जी भर जीने की कला सबको आ जाती तो ये संसार कितना सुखमय हो जाता।
bahut pyaari si rachna hai
सुन्दर कल्पना और खूबसूरत अभिव्यक्ति में सराबोर बेहतरीन रचना......
इंसान से पक्षी होने की कल्पना धन्य है
आपने जड भरत की काहानी सुनी है जो
हिरन के बच्चे से प्रेम होने के कारण
उसी योनि में जन्में थे शायद आप मनुश्य
शरीर की अहमियत नहीं जानती देवता भी जिसको
पाना चाहते हैं ऐसे ही ख्यालों में मनुष्य अपना
कीमती जीवन खो देता है
रात गंवाई सोय के दिवस गंवाया खाय
हीरा जन्म अमोल था कौङी बदले जाय
Bahut sundar ... !
एक बेहतरीन रचना.
nice.......................
ek mithe bhav ki mahk
एक बेहतरीन रचना.
आमेन .............
पेर अरोडा साहब पर् ज़ुल्म क्युँ..............
सत्य
बढ़िया रचना!
उड़ने की कोशिश में,
नाकामयाव......
उसकी पंखो को,
कुतर दी गई है,
बंदिस रूपी खंजर से.
चाहती थी वह,
उड़ना.....
अनंत तक
चहकना.....
अरमानो के मुडेर पर,
फुदकना.....
दिल की आँगन में.
स्वर्ण पिंजरा को छोड़कर,
उड़ने के लिए
खुले आकाश में.
चाहत की दरवाजे को,
पार कर जाना चाहती थी,
वह तितली.
मैं डरता हूँ,
कविता से....
शायद रूठ न जाए,
मेरी कोई हरकतों से.
अब तो इस डर ने,
डरने की सीमा पार कर गई है.
रात भर जागा रहता हूँ
ऐसा न हो की,
कविता...
रूठ कर चली जाए,
हमारे सोने के बाद.
कभी पलक झपकती भी
तो पुकारता हूँ,
कविता-कविता......
कई बार तो पूछ बैठा हूँ,
अपनी माँ से,
चली तो नहीं गई
कविता...?
कविता की डर ने
जुदा कर दिया हमें...
गीता से रामायण को
अब हाथ भी नहीं लगाता,
शायद..
नहीं चाहती कविता
बातें करूँ मैं,
किसी और से.
या फिर,
मेरी मुलाक़ात हो,
किसी और के साथ.
वह तो चाहती है
अपना बनाना
मुझे......
सिर्फ अपनाना,
कविता का सागर.
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