यादों के आईने से - यादों के आईने से कुछ पल चुरा लिए हैं हमने । आज हमने फिर जिन्दगी जी ली । तो आइये हमारे साथ जिंदगी की किताब के कुछ पिछले पन्ने पलट ले और जी ले। मान लीजिये बात हमारी ..... इस तेज रफ़्तार जिंदगी से कुछ पल अपने लिए चुरा ले। :-)
आज अपनी जिस रचना से हम आपको परिचित करने जा रहे हैं , वो उन दिनों की उपलब्धि हैं जब बचपन छूट रहा था । माँ ने सलीके सिखाने शुरू कर दिए थे । हर बार घर में ये बताया जाने लगा था कि बड़ी हो गई हो। बहुत गुस्सा आता था उस वक्त ...... सोचती थी कि बात - बात पर ये क्यो कहा जाता हैं कि बड़ी हो गई हो, बड़ी हो गई हो......... जैसे हम नही जानते कि हम बड़े हो गए हैं। खैर बीत गया वो वक्त जैसे - तैसे ।
आज भी जब कभी बचपन को याद करते हैं , तो मुस्कराहट आ जाती हैं होठों पर..... एक बार मन कर रहा हैं उन्ही यादों में वापस जाने का .........तो आइये हमारे साथ फिर से जी लेते हैं वो पल...
बचपन
अनगिनत रंग हैं जीवन के,
गिनत वर्ष हैं जीवन के,
कुछ ऐसे वर्ष हैं जीवन के,
जो कभी नही भूलता आदमी!
कुछ कहने को मन करता हैं,
कुछ लिखने को दिल करता हैं,
कुछ बातें ऐसी होती हैं ,
जो दिल ही दिल से कहता हैं!
मन के भाव को ऐसे हैं,
शब्दों में कहना हैं मुश्किल,
पर भावो को शब्दों में रचने का कार्य तुलिका करती हैं।
इन गिनत वर्ष , अनगिनत रंग में,
एक रंग भी हैं बचपन का,
जो सीधा, सच्चा, निर्मल हैं,
सरि-सरिता जैसा हैं चंचल।
बिजली जैसी गर्जना उसमें,
दिवाकर जैसी उष्णता हैं,
शशि जैसी शीतलता उसमें,
पुष्प सी कोमलता हैं,
ईश्वर सा स्नेह उसमें ,
और प्रकृति सी नम्रता हैं।
किंतु परिभाषा पूर्ण नही,
बचपन तो आख़िर बचपन हैं।
ये तो प्राकृतिक रूप बचपन का ,
किंतु भावना कुछ और ही कहती हैं।
याद हैं मुझको वह अवधि, जब अबोधता का बोध नही था।
सारी दुनिया लगती अपनी, परायेपन का बोध नही था।
ऊंच-नीच में भेद हैं क्या, ऐसा मुझको ज्ञान नही था।
सत्य-असत्य होता हैं क्या, ये तो सिर्फ़ बडो से सुना था।
लेकिन अर्थ किसी का न पता था।
वस्त्र - आभूषण कैसे हैं मेरे, तब तो ज्ञान अधूरा था।
उलाहने लेकर आया कोई, तो माँ का आँचल ही प्यारा था।
किंतु अफ़सोस आज हैं मुझको, मुझसे मेरा बचपन छिन गया।
हे ईश्वर ज्ञान दिया क्यो मुझको, मैं अज्ञानी ही अच्छा था।
उस अज्ञानता के कारण, मेरा बचपन मेरे निकट था।
आपके पास कोई उपाय हो तो कृपया बतलाइए ,
मुझको सिर्फ़ एक बार मेरा बचपन लौटाइये ।
मुझको सिर्फ़ एक बार मेरा बचपन लौटाइये ॥
उम्मीद हैं ..... इसको पढ़कर आपने कुछ वर्क पलटे होंगे।
गिनत वर्ष हैं जीवन के,
कुछ ऐसे वर्ष हैं जीवन के,
जो कभी नही भूलता आदमी!
कुछ कहने को मन करता हैं,
कुछ लिखने को दिल करता हैं,
कुछ बातें ऐसी होती हैं ,
जो दिल ही दिल से कहता हैं!
मन के भाव को ऐसे हैं,
शब्दों में कहना हैं मुश्किल,
पर भावो को शब्दों में रचने का कार्य तुलिका करती हैं।
इन गिनत वर्ष , अनगिनत रंग में,
एक रंग भी हैं बचपन का,
जो सीधा, सच्चा, निर्मल हैं,
सरि-सरिता जैसा हैं चंचल।
बिजली जैसी गर्जना उसमें,
दिवाकर जैसी उष्णता हैं,
शशि जैसी शीतलता उसमें,
पुष्प सी कोमलता हैं,
ईश्वर सा स्नेह उसमें ,
और प्रकृति सी नम्रता हैं।
किंतु परिभाषा पूर्ण नही,
बचपन तो आख़िर बचपन हैं।
ये तो प्राकृतिक रूप बचपन का ,
किंतु भावना कुछ और ही कहती हैं।
याद हैं मुझको वह अवधि, जब अबोधता का बोध नही था।
सारी दुनिया लगती अपनी, परायेपन का बोध नही था।
ऊंच-नीच में भेद हैं क्या, ऐसा मुझको ज्ञान नही था।
सत्य-असत्य होता हैं क्या, ये तो सिर्फ़ बडो से सुना था।
लेकिन अर्थ किसी का न पता था।
वस्त्र - आभूषण कैसे हैं मेरे, तब तो ज्ञान अधूरा था।
उलाहने लेकर आया कोई, तो माँ का आँचल ही प्यारा था।
किंतु अफ़सोस आज हैं मुझको, मुझसे मेरा बचपन छिन गया।
सत्य - असत्य ,अच्छे- बुरे का ज्ञान मुझको हो गया।
ज्ञान आते ही मुझमें कृपणता भी आ गई।हे ईश्वर ज्ञान दिया क्यो मुझको, मैं अज्ञानी ही अच्छा था।
उस अज्ञानता के कारण, मेरा बचपन मेरे निकट था।
आपके पास कोई उपाय हो तो कृपया बतलाइए ,
मुझको सिर्फ़ एक बार मेरा बचपन लौटाइये ।
मुझको सिर्फ़ एक बार मेरा बचपन लौटाइये ॥
उम्मीद हैं ..... इसको पढ़कर आपने कुछ वर्क पलटे होंगे।
4 comments:
bhut khoob priyanka......i hav no compliment on it .just amesing........ise padhkar sirf man me ek hi saval kond raha hai ......bachpan se ham kabhi door na ayye hote kash omar k ye mod na aye hote
बहुत सुद्नर प्रियंका ..बहुत से वर्क उलट गए :)
बचपन में गौरय्या तोते मैना कठफोड़वा और न जाने कितने पक्षी सुबह होते ही शोर मचाने लगते थे। अब उतना शोर नही होता। रात में देर तक जागना पड़ता है तो सुबह नीद भी देर से खुलती है । बचेखुचे पक्षी बोलके जा चुके होते हैं । एक या दो कौए भी नहीं दीखते । सामने दिख जाते हैं फाख्ता । दिन भर टेरते रहते हैं न जाने क्यूँ। हाँ आधी रात के बाद कुचकुच्वे ज़रूर शोर मचाते हैं । कुचकुचवा का नाम नहीं सुना है! अरे वही छोटे उल्लू । न जाने क्यूँ दिन में फाख्ता की टेर और रात को कुचकुच्वे का शोर सुकून देता है। लगता है कोई बात कर रहा है। कुछ कहना चाहता है।
बचपन जितना सुंदर होता है प्यारा होता है उतनी ही जल्दी चला जाता है अपनी मधुर स्मृतिय छोड़कर मन मैं .
और उन्ही स्मृतियों के सहारे हम अपने भीते दिनों के सुखद पल जी लेते है
अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर आपको पढना
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