मेरी ये रचना भारत की उन स्त्रियों के लिए है जो बस बिटियाँ है, बांके की दुल्हन हैं, छुट्टन की अम्मा है। कहीं बडकी, मझली, छुटकी है उनके पास खुद का नाम नहीं, कोई पहचान ही नहीं, विरोध उसका स्वभाव ही नहीं, जो कुछ परिवार, समाज से मिला उसको भाग्य मान बैठी (मौन है तो ?क्या लेकिन सब समझती है )...देश ने वोट का अधिकार तो दिया लेकिन सर उठाकर जीने का हौसला नहीं। सोचती हूँ यदि महिला आरक्षण को मंजूरी मिल भी जाए तो क्या उनका भाग्योदय होगा ? या फिर मंत्रियों की पत्नियां और प्रशासनिक अधिकारियों के परिवारों की स्त्रियाँ ही इस का लाभ उठा पाएंगी ....खैर इस विवादित प्रश्न को विराम देते है। मुझे लगता है क़ि बनी बनाई व्यवस्था को बदलने के लिए कानून की नहीं बल्कि वैचारिक क्रांति और नज़रिए में बदलाव की जरूरत होती है.....इस विषय पर फिर कभी .......अभी तो बेनामी में खोई उन तमाम स्त्रियों की अंतर्मन की जुबा को मेरी कलम की तरफ से आवाज़ :-
स्त्री हूँ मैं
हमेशा से कमजोर समझते आये हो मुझको
नवरात्रि में
दुर्गा सप्तशती का पाठ
करते देखा है मैंने
क्यों?
मेरे शक्तिस्वरूपा, तेजस्वी, ओजपूर्ण
रूप से डर गए क्या ?
ओह! तो स्वार्थी हो तुम
पूजते हो क्योंकि -
मुझ दैवीय स्वरुपा की नज़र तिरछी हुई तो
नुक्सान हो सकता है.
अच्छा ! तो बल से डरते हो
मन से छल करते हो
कितने दोगले हो तुम
कितनी बार भावनात्मक खेल खेला है तुमने
राजनीति भी कर लेते हो अक्सर
और तुम्हारी कूटनीति का तो जवाब नहीं
मेरा अंश जो स्वतंत्र है
उसी को छलते हो रोज़
पर नहीं भूलते मेरे दर पर दिया जलाना
क्या लगता है तुमको ?
तुम्हारे घर, परिवार, समाज की स्त्रियाँ
नहीं समझती तुमको -
जब तुम जज़्बातों का छल करते हो
और वो मोहब्बत के पकवान बनाती है
रिश्तों की मजबूती के लिए
जब राजनीति करते हो
तो वो खामोश सी झूठ को परखती है
और आंकलन कर आगे बढ़ जाती है
कूटनीति करते हो
तो धैर्यवान नारी, चतुराई से
हालातों की दिशा बदलती है
देखी को अनदेखी कर
तुम्हारी गर्द झाड
मसरूफ हो जाती है जिंदगी में
बस! अब और नहीं
क्योंकि इतिहास साक्षी है
जितनी भी बार तुमने
ललकारा है स्त्री के धैर्य को
उसके आत्मसम्मान को,
साहस को
लोगों ने सिर्फ खोया है
पाया कुछ नहीं
कहीं लंका ढही
तो कहीं कौरव वध
अब निर्णय तुम्हारा है ॥
हमेशा से कमजोर समझते आये हो मुझको
नवरात्रि में
दुर्गा सप्तशती का पाठ
करते देखा है मैंने
क्यों?
मेरे शक्तिस्वरूपा, तेजस्वी, ओजपूर्ण
रूप से डर गए क्या ?
ओह! तो स्वार्थी हो तुम
पूजते हो क्योंकि -
मुझ दैवीय स्वरुपा की नज़र तिरछी हुई तो
नुक्सान हो सकता है.
अच्छा ! तो बल से डरते हो
मन से छल करते हो
कितने दोगले हो तुम
कितनी बार भावनात्मक खेल खेला है तुमने
राजनीति भी कर लेते हो अक्सर
और तुम्हारी कूटनीति का तो जवाब नहीं
मेरा अंश जो स्वतंत्र है
उसी को छलते हो रोज़
पर नहीं भूलते मेरे दर पर दिया जलाना
क्या लगता है तुमको ?
तुम्हारे घर, परिवार, समाज की स्त्रियाँ
नहीं समझती तुमको -
जब तुम जज़्बातों का छल करते हो
और वो मोहब्बत के पकवान बनाती है
रिश्तों की मजबूती के लिए
जब राजनीति करते हो
तो वो खामोश सी झूठ को परखती है
और आंकलन कर आगे बढ़ जाती है
कूटनीति करते हो
तो धैर्यवान नारी, चतुराई से
हालातों की दिशा बदलती है
देखी को अनदेखी कर
तुम्हारी गर्द झाड
मसरूफ हो जाती है जिंदगी में
बस! अब और नहीं
क्योंकि इतिहास साक्षी है
जितनी भी बार तुमने
ललकारा है स्त्री के धैर्य को
उसके आत्मसम्मान को,
साहस को
लोगों ने सिर्फ खोया है
पाया कुछ नहीं
कहीं लंका ढही
तो कहीं कौरव वध
अब निर्णय तुम्हारा है ॥
" प्रिया चित्रांशी"
27 comments:
मुझे १ बात समझ में नहीं आती कि आप औरते लोग हमेशा मर्दों को गली क्यूँ देते फिरते हो और कोई कम नहीं है क्या तुम लोगो के पास ??
हमेश मर्दों को गली देते हो कि मर्दों ने ये कर दिया मर्दों ने वो कर दिया
पर कभी ये नहीं लिखते कि औरतों ने क्या किया ???
ये आप लोगो का दोगलापन नहीं है क्या
??
सुंदर प्रस्तुति।
www.upchar.blogspot.com
बहुत सुन्दर प्रिया जी..
नवरात्रों में लड़कियों को पूजा जाता है और बाद में..
यह हमारे समाज का दोगलापन है..
हम सभी अपने फायदे के लिये हर चीज को मोल्ड कर लेते हैं..
अच्छी कविता है।
करारी चोट की है नकारी व्यवस्था पर......मन खुश हो गया,
आवाज़ हर दिशा से मुखरित है
आंदोलित करती हुई कविता सच कह रही है आप आराक्षण या फिर अन्य किस और साधन से कुछ होने वाला नहीं आवश्यकता है जन जाग्रति की
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
ओहो .......बैरागी जी, इतनी नाराज़गी.....हमने तो नारियों की बात की पुरुषो का जिक्र ही नहीं किया......प्रतिक्रिया के लिए इतनी हड़बड़ी अच्छी नहीं, आप रचना ठीक से पढ़िए.....ये समाज की स्त्रियों की कौन सी श्रेणी से सम्बद्ध इस पर ध्यान दें. यकीनन आपका भी नजरिया बदलेगा. खैर आपका शुक्रिया ......आपकी आलोचना और प्रशंसा दोनों शिरोधार्य...रही बात दोगलेपन की तो सवाल खुद से पूछिए हम से नहीं.
आगे भी आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा,
सादर,
प्रिया
प्रिय जी बहुत खूब लिखा है.कामल की चलती है आपकी कलम बहुत हृदयस्पर्शी कविता
bahut hi khoobsurat rachna aapki lekin aapko kuch ceezon ka khyal rakhkar likhna chahiye taki aur community ko bura na lage ...after all achchi rachna...
बेहतरीन है
बहुत खूब लिखा है
बेहतरीन चित्रण किया है
शानदार
और फिर सच हर कोई पचा भी तो नहीं पाता
priya ji...
awesome.
बढ़िया लगी रचना...
अलीम आज़मी ji
सबसे पहले तो शुक्रिया इसे पसंद करने के लिए. अब कुछ सवाल उठे है जहन में -
aapko kuch ceezon ka khyal rakhkar likhna chahiye taki aur community ko bura na लगे... आपके इस कथन का मतलब ठीक से समझ नही आया.
हम सिर्फ इतना कहना चाहेंगे -
कलमकार की कलम की कोई कम्युनिटी नहीं होती, और जिसकी होती है वो कलमकार नहीं होता,मानसिक संकीर्णता से भी कलमकारी नहीं होती.व्यक्ति हिन्दुस्तान का हो या पकिस्तान, भूटान, बंगलादेश, नेपाल, चीन या अमेरिका की दर्द वही होता है ....व्यक्त करने का तरीका जुदा ....शुक्र है कि हम भारत जैसे देश में है. जहाँ बहुत से कानून है महिलाओं के पक्ष में ......हाँ सामाजिक विषमताए ज़रूर है ....वरना अरब देशो में क्या होता है महिलाओं के साथ स्थिति किसी से छूपी नहीं.
सच्चाई को बताती एक सार्थक रचना....सच है कि आरक्षण से कुछ बदलाव नहीं होने वाला...असल बात है मानसिकता के बदलाव की... ..नेताजी ने कह भी दिया है कि जो हम कहेंगे वही हमारी पत्नी करेगी..हमारी सोच से अलग नहीं जा सकती...तो ऐसी स्वतंत्रता किस काम की..पुरुष समुदाय स्त्रियों के बारे में कुछ भी लिखता रहे बस उनका अहम संतुष्ट होना चाहिए....लेकिन जब भी कभी उसे आईना दिखाया जाता है तो बौखला उठता है...और ये भी सच है कि हर पुरुष शोषक नहीं होता और ना हर नारी सहनशील... लेकिन अधिकतर ऐसा होता है....
आपकी कविता मन को छूती है...बधाई
bahut sunder rachna lagi priya as always .....ese hi likhti raho :)
प्रिया ....प्रिया...प्रिया .......इस जोरदार कविता के लिए खड़े होकर जोरदार तालियाँ .......!!
आहा ....बहुत सुकून मिला आज ......!!
बस! अब और नहीं
क्योंकि इतिहास साक्षी है
जितनी भी बार तुमने
ललकारा है स्त्री के धर्य को
उसके आत्मसमान को,
साहस को
लोगों ने सिर्फ खोया है
पाया कुछ नहीं
बहुत खूब .....!!
धैर्य और आत्मसम्मान शब्द ठीक कर लें ......!!
itna achcha kaise likh leti hai? bachpan se hi aisi hai ya kahi sikha hai?
@ Yogesh
आपकी प्रशंसा के लिए शुक्रिया !
ये तारीफ कुछ ज्यादा है योगेश! अगर आप ब्लॉग जगत में लोगों को पढ़े तब आपको पता चलेगा कि कितने नायब रत्न बिखरे हैं यहाँ ... उनके सामने हम कुछ भी नहीं.....लेकिन हाँ आपका प्रोत्साहन ही है जो हमें प्रेरणा देता है......इसलिए हौसला देते रहिये.
प्रिया
raajneeti karne wale to apne faide ke liye rajneeti karte rahenge. Nariyon ke har kshetra mein aage na badhne dene mein jitna dosh humare purush pradhan samaj ka hai utna hi mahilaon ka bhi hai. Jaroorat hai mansik roop se maariyon ki ekjutta ki..
शशक्त रचना है ... समाज के दोहरे मापदंड में अब तक नारी पिस्ति ही आई है ... पुरुष ने सदा नारी को अपने अधीन रखने के बहाने खोजे हैं .... नारी ही नारी की दुश्मन बन जाती है अक्सर ...
@manish ji aur Digambar ji aap dono ki baaton se sahmat hoon.
प्रिया... सबसे पहले तो इतनी अच्छी रचना के लिये बधाई और देर से प्रतिक्रिया देने के लिये माफ़ी :-)
अब आते हैं आपकी रचना पे... तुम्हारे विचारों से सहमत हूँ भी और नहीं भी... आज की नारी हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही है और उसकी पद-प्रथिष्ठ को पूरे सम्मान के साथ अपनाया भी जा रहा है... अब वो सिर्फ़ किसी की माँ और पत्नी नहीं कहलाती उसका अपना एक अस्तित्व है... हाँ, समाज के जिस वर्ग की बात तुम कर रही हो वहाँ इस सबका सबसे बड़ा कारण है जागरूकता की कमी और निरक्षरता... वहाँ ज़रुरत है जागरूकता लाने की और मानसिकता में बदलाव लाने की... वरना हम तुम इन मुद्दों पर बहस करते रहेंगे और जिनके लिये कर रहे हैं उन्हें शायद कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा... वो बांके की दुल्हन और छुट्टन की अम्मा कहलाना ही पसंद करती हैं और उसी हाल में ख़ुश हैं...
पहली बार आया हूँ इस गली
बहुत अच्छा लगा
आपके ज़ज्बात पड़कर
कुछ अपना सा लगा
यूँही पिरोते रहिये अपने दिले राज़
अन्दर-बाहर अपने जैसा भी लगा
कभी अजनबी सी, कभी जानी पहचानी सी, जिंदगी रोज मिलती है क़तरा-क़तरा…
http://qatraqatra.yatishjain.com/
vaah...bahut khoob.....sach hi kahaa nirnay to hamen karnaa hi hoga....ki saath-saath kaise chalnaa hogaa....!!
भूल ही गया..किरण खेर के सवाल का जवाब तो हम सबको मिलकर खोजना है...यदि आपको मिले तो हमें आवश्य सूचित करें..
यह कविता भी दमदार है।
कविता का अच्छा अंश कट-पेस्ट करके उद्धरित करना चाहता था पर नहीं हुआ।
--बधाई।
तुम तो प्रिया की तरह बात करते हो .. तेज़, तीखी, सीधी, कर्णभेदी परंतु अंतत: सत्य...
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