Monday, February 1, 2010

कुछ ग्लोबलाइज़ लहरें

(ये रचना मेरे लिए ख़ास है ...उलझे दिमाग की सुलझी उपज है। उलझन की स्थिति शायद मस्तिष्क की सबसे उपजाऊ अवस्था होती है। ये रचना व्यक्ति से शुरू होकर, सामाजिक ताने बाने से गुजरती हुई वैश्विक होती है तथा भविष्य की परिकल्पना पर विराम लेती है. सिर्फ इतना अनुरोध है ...थोड़ी बड़ी रचना है इसे पूरा पढ़े और पढ़कर ही प्रतिक्रिया करें.....क्योंकि आप की राय मेरे लिए अमूल्य है। )


कल समंदर के साहिल पर
टहलते हुए एक मौज टकराई
अकेली नहीं आई
कुछ सवाल लाई
मैंने नज़रे चुरानी चाही
उसने लपक कर
पांवो को जकड लिया

पूछा, कैद करना चाहती हो ?
बोली नहीं, तुम्हारे चरणों का स्पर्श




मै मुस्कुराई
इत्मीनान से साहिल पर भीग जवाब देने ही वाली थी
के दूसरी मौज ने इशारा किया
लड़खड़ाती जुबा संभल कर कहा
आज नहीं फिर कभी -
मौज समंदर में वापस लौट गई




तन्हा जान दूजी आई
बोली, तू ये क्या करने वाली थी
हाल-ए-दिल गाने वाली थी
तू नहीं जानती ------
लहरे कभी कोई बात कहाँ पचा पाती है
वापस आकर साहिल पर ही तो फेंक जाती है
मैंने कहा -
तू क्यों ये सब कहती है
अपने कुनबे से ही गद्दारी करती है
क्यूं करूँ मैं तुझ पर भरोसा ?
हे राम !
क्या अब नीर से भी मिलगा धोखा ?




लहर मेरे तन से लिपट बोली
तूने मुझे पहचाने में किया धोखा
दरअसल मैं तेरा ही हिस्सा है



बरसो साहिल पे बैठ के तूने जो अश्क बहाए है
उन नन्ही बूंदों ने समुद्री मौजो के नखरे उठाये है
आज मैंने समुद्री मौजो से बगावत की है
तेरे अश्रु आज लहर बन तेरे सामने आये है।




इत्फाकन आज मैं अकेली हूँ
तेरा अपना हिस्सा हूँ
तेरी ही सहेली हूँ
कैसे न रोकती तुझे बोलने से --

तुमको लगता है समंदर की दुनिया अलग होती है
इंसानी दुनिया से बिल्कुल जुदा होती है
मैं तो अब इस दुनिया का ही हिस्सा हूँ
इसीलिए तो कहती हूँ
यहाँ भी फितरत आदमियत सी होती है।




अल्लाह बड़ा कारसाज़ है
शक्ले अलग देता है
आदतें वही देता हैं
तुम्हारा दर्द बांटने से कम नहीं होगा
ग्लोबल हो जायेगा


हिंद महासागर, प्रशांत महासागर से मिल जायेगा
कौन जाने कल ये दर्द अंतर्राष्ट्रीय हो जायेगा
यू.एन.ओ. बेबस नज़रो से ताकेगा
कोई चारटअर्ड शेल्फ की धूल चाटेगा
हमेशा की तरह पैसा और ताकत जीत जायेगा।



खामोश रहकर नादानियों से सीख लो
हालात चाहे कितने बदहाल क्यों न हो जाए
यू सारे आम नीलाम न करो
अपनी ख़ास पीड़ा को ऐसे आम न करो
खुद को संधि के नाम पर बदनाम न करो।




कौटिल्य से कुछ नहीं सिखा तुमने -
पलट कर देखो एक बार
बन जाएगी फिर नई बात
चौसर का खेल तो तुमने ही सिखाया है
सुना तो ये भी है के शून्य भी तुमने बनाया है।




तो फिर
अश्को की लेकर धराये
पोटली में कुछ आशाएं
उपलब्ध संसाधन
विचारो और ईमान की प्रत्यंचाए
तकनीकी गांडीव की प्रबल टनकारे
एक लक्ष्य, एक सांस
अचूक निशाना
अचूक वार


चलो कूच करो २२ वी सदी की ओर
इस "अबला "को अब " बला" बनने से कौन रोक पायेगा ?


25 comments:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

सचमुच ग्लोबलाइज लहरें हैं। उठती हैं अन्दर ही अन्दर और कई सारे प्रश्नों को हल करते हुए लौटती भी नहीं, पैठ जाती है अपने पूरे आकार में। आखिर 22 वीं सदी का ख्वाब जो है।
उत्कृष्ट रचना।

योगेश गुलाटी said...

माफी चाहता हूँ! लेकिन मुझे समझ नहीँ आया कि आप अपनी इस कविता मेँ कहना क्या चाहती हैँ? झूठी वाह- वाही तो मुझे आती नहीँ! पेशे से टीवी पत्रकार हूँ इसलिये वही कहता हूँ और वो ही दिखाता हूँ जो सच है! जल्द ही अपने चैनल पर ब्लोगर्स बोले नाम से एक प्रोग्राम शुरु करने वाला हूँ! अगर आप कोई बडी हस्ती नहीँ हैँ तो इस नासमझ को भी ज़रा समझायेँ अपनी कविता का भावार्थ ! आप चाहेँ तो मेरा इमेल पता नोट कर मुझे मेल कर सकती हैँ! चाहेँ तो इस नासमझ की बात को अनदेखा भी कर सकती हैँ! मेरा मैल आईडी है yogeshgulatius@yahoo.in अगर भावार्थ समझ आया तो आपके ब्लोग पर आना-जाना लगा रहेगा!

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा और गहरी अभिव्यक्ति!!

Vandana Singh said...

i read it 2 tims ..:) speechless creation ....amazing thought :)....

Dev said...

वाह.. . बहुत ही दिलचस्प तथा अहसास से पूर्ण .......कल्पना की दुनिया कही न कही हकीक़त के रस्ते से होकर गुजरती है .

अनुनाद सिंह said...

अच्छी एवं भावपूर्ण रचना।

अनिल कान्त said...

wow !
gr8 one...

आशीष खण्डेलवाल (Ashish Khandelwal) said...

gr8 journey of thoughts.. padha to padhte hi chale gaye.. lajawaab

Happy Blogging

प्रिया said...

योगेश
आपकी सच्ची प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया......किसी भी रचना में लेखक का अपना नजरिया होता है और पाठको का अपना. एक ही चीज़ को हर व्यक्ति अलग-अलग बिम्ब से देखता है जैसा कि कविता के प्रारंभ के पूर्व की पंक्तियों में मैंने कहा है बस उसी में इसका अर्थ समाहित है. ......कई रंग है इसमें .
पहला पैराग्राफ एक युवती क़ी मनोदशा है
धीरे-धीरे कुछ सामाजिक उलझने है
बीच तक आते आये ये युवती भारत बन जाती है
फिर विश्व से मिलकर अमेरिकी रवैये के हालात
और अंत में आत्म-मंथन के साथ प्रगतिशील
भविष्य क़ी परिकल्पना.

उम्मीद है आप संतुष्ट हुए होंगे

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

waakai bahut hee achi rachna hai@@

keep writing!!

Aparna Bajpai said...

priya aapki akvita me abiwyakti unche darje ki hai . apne antas ko washvik bane ke farmule se sambadh.

aapki kavita me samvednayen aur vichar milkar achchha achar ban pade hai. maph kijiyega koi aur rupak yad nahi aa raha . lajwab kavita! aur yogesh ko diya gaya jawab kavita ko samajhane me sahyogi hai . waise kavita aur chitron ko samajhne wale par chhod dena chahiye .
samvednaon ko itni gahenata ke sath samne lane ke liye shukriya.

दिगम्बर नासवा said...

आपकी कल्पना कहाँ से उड़ कर कहाँ तक पहुँची है ......... समुंदर की गहराई से आकाश की उचाई तक उड़ती कल्पना को बहुत विस्त्रात ज़मीन दी है आपने ....... अच्छी लगी आपकी रचना ........

डिम्पल मल्होत्रा said...

प्रिया आपने लिखा कि इसे पूरा पढ़ के ही कमेन्ट करे तो वो तो कविता आपको अपनी लय में बाँध लेती है कि पूरा पढना ही पड़ता है.आपने अपना नजरिया बताया तो अब वही हमे लगा नहीं तो हर कोई अपने हिसाब से समझ लेता है.

Ambarish said...

international dard.... accha laga...

शरद कोकास said...

बहुत विस्तृत फलक है इस रचना का ।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

कल्पना की सार्थक उडान।
--------
घूँघट में रहने वाली इतिहास बनाने निकली हैं।
खाने पीने में लोग इतने पीछे हैं, पता नहीं था।

हरकीरत ' हीर' said...

योगेश जी ,
शायद प्रिया का जवाब आपके समझ न आया हो .....थोडा और खुलासा कर दूँ .......

यहाँ लहर एक स्त्री है और समुन्द्र एक पुरुष .....लहर अपनी सखी के चरण स्पर्श इसलिए करना चाहती है क्योंकि वह समझती है उसका दर्द ( स्त्री का दर्द अगर समझ न आये तो अमृता की 'एक थी सारा ' पढियेगा )

तन्हा जान दूजी आई
बोली ये क्या करने वाली थी

यहाँ नायिका शायद आत्महत्या करना चाहती है जिसे लहरे चेतावनी देती हैं ...
.
" बरसों साहिल पे बैठ के ......"
उम्मीद है ये पैरा भी समझ गए होंगे .....लहर कहती है समुन्द्र ने अपनी मौज के बाद जो तुम्हें आंसू दिए हैं उन्हीं आंसुओं से मैं बनी हूँ ....;अर्थात तुम्हारे ही आंसुओं से उपजी हुई लहर हूँ ....तुम और मैं कोई अलग नहीं ....तुम्हारा ही हिस्सा हूँ .....पुरुष में और समुन्द्र में कुछ विशेष अंतर नहीं .....लहरों से खेलने के बाद उसे उछाल कर दूर फेंक देना उसकी फितरत है ....

अंत में कवयित्री स्त्री को अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ अबला से बला बनने को प्रेरित करती है .....!!

प्रिया जी इस रचना के लिए आपको खड़े होकर तालियाँ और आलिंगन .....!!

Dimple said...

Priya,

I am really speechless after reading this composition of yours!! It has so much depth, emotions, feelings...
Feelings that leave in impact :)
All the words are echoing in my heart. And the entire linkup is awesome :)


Thank you so much for all your comments and being in my followers list :) Really appreciate that!

Regards,
Dimple
http://poesmhub.blogspot.com

प्रिया said...

हम आपको हीर ही कहेंगे .....जिन्होंने दिया है वो तो हर दिल अजीज है और हमको तो प्यारा है ही.

हीर मैम

वाह क्या व्याख्या की है आपने .......आपके नजरिये से कविता को देखना अच्छा लगा . यकीनन आपका नजरिया हमारे नज़रिए से खूबसूरत है. शायद यही वजह कि लोग आपसे इतना प्यार करते है.

सादर, सप्रेम
प्रिया

Razi Shahab said...

umda aur gahri soch

बवाल said...

प्रिया जी हमको मुआफ़ करें जो हम आज तक आपको पढ़ न पाए। एक बेहतरीन सितारा समझ में आईं आप हमें। बहुत ख़ूब और बेहतर लिखती हैं आप। मालिक उम्रदराज़ करे आपकी। हमारी बहुत बहुत शुभकामनाएँ हैं आपको।

"अर्श" said...

badhaayee achhee rachanaa ke liye.. ")


arsh

महावीर said...

एक सुन्दर भावपूर्ण रचना है.
महावीर शर्मा

संजय भास्‍कर said...

बहुत उम्दा और गहरी अभिव्यक्ति!

संजय भास्‍कर said...

वाह.. . बहुत ही दिलचस्प तथा अहसास से पूर्ण .......कल्पना की दुनिया कही न कही हकीक़त के रस्ते से होकर गुजरती है .