Friday, July 16, 2010

संभाल लो मुझे



भीड़ सी मेरे आस-पास चलती रहती है
तन्हाई मुस्कराहट का लिबास ओढ़े खड़ी रहती है
एक बाज़ार सा माहौल है मेरी दुनिया में
जहाँ सब कुछ बिकता है


एक दूकान तो मेरे अन्दर भी खुल रही है
कोई झुन्झुलाहट या झल्लाहट पनप रही है
किसे बेचू ? कौन खरीदेगा ये सब ?
मोल-भाव में अभी कच्ची हूँ .




मेरे ख्वाइशों की परवाह कौन करता हैं
यहाँ तो ख्वाबों का भी दाम लगता है
फिर भी मन के किसी कोने में
एक उम्मीद जल रही है


वो आये आके थाम ले मुझे,
तलाश ले वो, जो मेरा वली है


इससे पहले के मेरा ज़मीर लुट जाए
जहन मैला हो जाए
संभाल लो मुझे.
"प्रिया "

20 comments:

Vandana Singh said...

behad behad sunder ehsaas ..acchi lagi bahut :) par ye ummeed hame kamjor banati rehti hai priya ...

Sunil Kumar said...

दिल की गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना , बधाई

Vinay said...

वाह कितनी खूबसूरत रचना है

सम्वेदना के स्वर said...

आज आपकी कविता ने मुझे मेरे अपने एक शेर से मिला दियाः
ईमान अपना बेचने निकला है वो घर से
बाज़ार मिल गया है ख़रीदार तो आए!
बहुत अच्छी रचना... काफी अंतराल पर लिखती हैं आप... ख़ैर ये तो व्यक्तिगत बात हो गई... ज़मीर बेचने वाले आज भरे पड़े हैं संसार में... जो इससे बच गया वही सच्चा इंसान है..ज़मीर बेचकर की गई कमाई में बरकत नहीं होती..

अनिल कान्त said...

kya baat hai !
waah !!

रश्मि प्रभा... said...

यह उम्मीद जो जाग्रत है, इसी का कमाल होता है... ख्वाहिशों की परवाह खुद रखो, फिर देखो दूसरी पगडण्डी बनानेवाले कैसे परवाह करते हैं !

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी पोस्ट आज चर्चा मंच पर भी है...

http://charchamanch.blogspot.com/2010/07/217_17.html

Satya Vyas said...

आमेन

Shri"helping nature" said...

कविता अच्छी है भाव निराशा वाले है

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत भाव....


आपकी रचना आज के चर्चा मंच पर है

http://charchamanch.blogspot.com/2010/07/217_17.html

vandana gupta said...

बहुत गहरे भाव्।

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

shabd nahi hain mere paas....

bahut hee umdaa likha hai aapne har baar ki tarah!

Rohit Singh said...

कभी कभी लगता है कुछ लिखना बेमानी है। कितना सही कहा है तुमने। हर इंसान ही आज दुकान लगाए बैठा है अपने जमीर का। हर चीज का मोल है बाजार में। फिल्म 420 मैं पैसे खत्म होने पर राजकपूर ईनाम में मिला मेडल गिरवी रखने जाते हैं. दुकानदार पूछता है क्या गिरवी रखना है। राजकपूर कहते हैं ईमान.....। लगता है अब गिरवी नहीं रखा जाता सिर्फ बिकता है ईमान। बहुत ही सुंदर कविता।

वैसे इंतजार खत्म हुआ कि नहीं।

डॉ .अनुराग said...

जमीर .....बड़ी अजीब चीज़ है .उम्र के साथ बढती घटती रहती है .....कहने वाले कहते है ....मोल्डिंग की इस वक़्त डिमांड ज्यादा है .....हालात के मुताबिक अपना आकार बदल लेने की खूबिया जो ठहरी ......

वैसे मोज़िला से कोई खास दुश्मनी है तुम्हारी ....जो ये ब्लॉग खुलता नहीं ..

Science Bloggers Association said...

आपके लफ्जों में एक रवानी है, लगता है कि जैसे सच्चे जज्बात की कहानी है।
................
नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?

रचना दीक्षित said...

क्या कहूँ???पर हाँ ये सच है .... मन को झकझोरती हुई प्रस्तुति

Dimple said...

Hello Priya,

Itna achha likha hai aapne... ki main kuch bolungi tareef mein toh kum hi hoga wo!

Par itna zarur kahungi... soch ke samundar mein aapke shabdo ne bahut sundar lehre paidaa kar di...

Regards,
Dimple

सागर said...

इतना गैप न भी हो तो चलेगा. और जहन को ज़ेहन कर लें तो ...

VIVEK VK JAIN said...
This comment has been removed by the author.
वीरेंद्र सिंह said...

Nice.